Friday, March 29, 2024
spot_img

एक नजर ग़ज़ल पर

भावपूर्ण शायरी ग़ज़ल की पहचान है। संगीत का यह प्रारूप, जिसने 1980 के दशक में श्रोताओं को मोहित किया, अब कठिन समय का सामना कर रहा है। नरेंद्र कुसनूर की कलम से

14 फ़रवरी को तलत अजीज ने आपने गायन के करियर के 40 वर्ष पूरे होने का उल्लास मनाने के लिए मुंबई के रॉयल ओपेरा हाउस में एक संगीत कार्यक्रम का आयोजन किया। अगले दिन, पंकज उदास ने उसी मील के पत्थर को चिन्हित करने के लिए मुंबई के नेहरू सेंटर में ग़ज़ल कार्यक्रम का आयोजन किया और श्रोताओं और दर्शकों को अपनी आवाज से मंत्रमुग्ध किया। ग़ज़ल हलको में, इन कार्यक्रमों को केवल इन दोनों कलाकारों के लिए, परंतु इस शैली में गाने वाले समस्त लोगों के लिए एक पहचान माना जाता है। 

 जब हम 80 के दशक के प्रारंभ में देखते हैं, तो याद आता है कि संगीत प्रेमी उस समय को याद करते है जब ग़ज़ल अपनी चरम सीमा पर थी। हालांकि जगजीत सिंह और चित्रा सिंह ने पहले ही खुद को इस शैली में स्थापित कर लिया था। राजेंद्र और नीना मेहता ने देश भर में प्रशंसकों को अपनी ग़ज़ल गायकी से आकर्षित किया। पंकज उदास और तलत अजीज जैसे नए गायकों के प्रवेश ने आंदोलन को मजबूत किया। एच.एम.वी(अब सारेगामा इंडिया) और म्यूजिक इंडिया (universal) जैसे रिकार्ड लेबल ने नवीनतम एल्बमों को बाहर लाने और कलाकारों को बढ़ावा देने के लिए प्रतिस्पर्धा की।

गुलाम अली

गायक अनूप जलोटा (जो बाद में भजन गायन  के विशिष्ट बने), पिनाज मसानी, चंदन दास, दिलराज कौर और राज कुमार रिजवी जैसे कलाकारों ने ग़ज़ल को आगे बढ़ाया

वरिष्ठ कलाकार मधुरानी और विट्ठल राव ने  युवाओं को संवारने के अलावा, अधिकांश ग़ज़ल कार्यक्रमों में गाने का मौका दियाएक पार्श्व गायक के रूप में नाम बनाने के बाद, भूपेंदर ने अपनी पत्नी मिताली के साथ ग़ज़ल पर ध्यान  केंद्रित किया। भाइयों की जोड़ी, अहमद और मुहम्मद हुसैन और हरिहरन ने ग़ज़ल गायकी में अपनी छाप छोड़ी। एक ही समय में भारतीय ग़ज़ल शायर निदा फाजली, शहरयार, सुदर्शन फ़कीर और हसन कमाल तथा पाकिस्तानी शायर फैज अहमद फैज़, अहमद  फराज़ और क़ातिल सीफाही प्रसिद्ध हुए।

ऐल्बमों और संगीत कार्यक्रमों के अलावा दूरदर्शन ने ग़ज़लों को बढ़ावा देने में एक प्रमुख भूमिका निभाई। साथ ही सिनेमाघरों के उत्थान के साथ फिल्म निर्माता और निर्देशकों ने, गमन, निकाह, उमराव जान,साथ-साथ और बाजार जैसे फ़िल्मों में ग़ज़लों का बड़े पैमाने में प्रयोग किया गया। 80 के दशक के मध्य तक इसकी दीवानगी बनी रही और अचानक से धूमिल हो गई। हालांकि, अल्प समय के लिए इसका पुनरुत्थान हुआ है आज भी इस शैली के कई प्रतिभाशाली कलाकार हैं

80 के दशक में ग़ज़लों के अचानक प्रसिद्ध होने के बावजूद, बहुत अधिक अव्यवस्था और गुणवत्ता में समग्र गिरावट इसके पराजय का कारण बनी

बेगम अख्तर

प्रारंभ  

शैली की बात करें तो ग़ज़ल नयी नहीं है। संगीतज्ञों का मानना है कि, इसकी उत्पत्ति सातवीं शताब्दी में अरब संस्कृति से हुई, जो पर्शिया      और भारतीय उप महाद्वीपों में आने से पहले की है। ग़ज़ल शब्द,  एक वाक्यांश से लिया गया है जिसका अर्थ है एक स्त्री से बात करने की कला’।

हालांकि इस शब्द का व्यापक अर्थ में उपयोग किया जाता है।  शायरी में दोहे का पाठ शामिल है,जो ग़ज़ल की विशिष्टता है, जो सामान्य रूप से चलता है। इसके संबंधित प्रारूप है, नज्म या धारा प्रवाह शायरी, रुबाई, चौपाई, गीत, सरल प्रेम गीत। 

उर्दू और हिंदी, ग़ज़ल की मुख्य भाषाएँ हैं, जिसे बाद में छोटे स्तर पर पंजाबी,गुजराती और मराठी जैसे भाषाओं में भी लिखा गया।

शायर, ग़ज़ल  की रीड की हड्डी है और गायक की भूमिका, शब्दों को व्यक्त करने की है। अधिकांश उर्दू शायरी,  प्रेम और जुदाई के विषयों को उजागर करती है, लेकिन ग़ज़लों को राजनीति,  पर्यावरण और हास्य जैसे विषयों के ऊपर भी लिखा गया है ।

18वीं शताब्दी के अंत और 19वीं शताब्दी के प्रारंभ ने कई महान शायर दिए, जिनमें मीर ताकि मीर, मिर्जा ग़ालिबमोमिन खान मोमिन और दाग  देहलवी शामिल हैं, जिनके कार्यों  को आज भी सराहा जाता है। हालांकि गायन, राज दरबार और निजी समारोह तक ही सीमित था। ग़ज़ल के साथ सूफ़ी  जैसे आध्यात्मिक संगीत का भी उदय हुआ और इसे धार्मिक संस्थाओं और सामुदायिक केंद्रों में प्रस्तुत किया जाता था। 30 के दशक में दर्ज की गई (Recorded) संगीत और बोलने वाली फ़िल्मों ने  ग़ज़लों के लिए दर्शकों का विस्तार किया। प्रारंभ के दर्ज की गई(Recorded) ग़ज़लों के कलाकारों में से  मास्टर मदन बहुचर्चित कलाकार थे, दुःख की बात है कि उनका निधन 14 वर्ष की आयु में ही हो गया। 40 और 50 के दशक की फ़िल्मों में, कुंदन लाल सहगल और तलत महमूद प्रमुख ग़ज़ल गायक  थे और कई लता मंगेशकर के गीतों को इस प्रारूप में लिखा गया था। संगीत निर्देशक नौशाद और  मदन मोहन अपनी ग़ज़लों के लिए जाने गए, जबकि रौशन और नौशाद ने सूफ़ी  क़व्वाली को एक लोकप्रिय तरीके से अपनाया। गीतकार शकील बदायूनी, साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, जाँ  निसार अख्तर और राजा मेहदी अली खान ने कई कालातीत फिल्म ग़ज़ल लिखे। 

विभाजन के बाद, पाकिस्तान ने कई ग़ज़ल कलाकारों को देखा। सबसे बहुकृतिक  मेहदी हसन थे, जिन्होंने शास्त्रीय संगीत के आधार पर गाने की शैली और उत्कृष्ट शायरी के चुनाव से ग़ज़ल को दूसरे ही स्तर पर पहुँचाया। नूर जहाँ, मल्लिका पुखराज, इकबाल बानो और फरीदा खानुम  लोकप्रिय हुए।  70 के दशक में पठानी खान और नुसरत फतेह अली खान जैसे सूफ़ी गायकों ने भी ग़ज़ल रिकार्ड की।

भारत में बेगम अख्तर, 50 और 60 के दशक की  निर्विवाद ग़ज़ल बेगम थी, जिन्होंने अपने गीतों को एक अलग स्तर पर पहुँचाया। उन्होंने संगीतकार खय्याम के साथ बहुत काम किया और 1974 में जब उनकी मृत्यु हुई तो एक युग का भी अंत हो गया। राजेंद्र और नीना मेहता ने ग़ज़ल जोड़ों की अवधारणा शुरू की, जिसे जगजीत और चित्रा सिंह ने आगे बढ़ाया। 

रुझान भी बदले।  सामान्य श्रोताओं को ध्यान में रखते हुए, गायकों ने सरल शायरी चुनना शुरू किया। वे पारंपरिक हारमोनियम, सारंगी और तबला की धुनों से आगे बढ़कर, पाश्चात्य और फ़िल्मों से प्रेरित धुनों को ग़ज़लों में सम्मिलित किया। इनमें से कई गानों का बदलाव जगजीत सिंह ने किया।

कुछ बदलाव की निन्दा हुई क्योंकि पारंपरिक ग़ज़ल गाने वालों और सुनने वालों को इस कला का विलय अन्य प्रारूप में पसंद नहीं आया। परंतु, अधिकांश लोग इस बदलाव को पसंद करने लगें। 40 साल पहले 80 के दशक में जब पंकज उदास और तलत अजीज ने अपने करियर की शुरुआत ग़ज़ल से की, तो उन्होंने इस आंदोलन  में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, परंतु यह बदलाव इस पृष्ठभूमि के विरुद्ध था।

पंकज उदास

यात्रा 

80 के दशक के प्रारंभ में लोगों के बीच ग़ज़ल की लहर, मुख्य रूप से नए गायकों और ऐल्बमों के उदय के कारण थी। परंतु कुछ और कारक ने भी सहायता की। हिन्दी फिल्म संगीत जो वर्षो से पसंदीदा रहा है, एक बुरे दौर से गुजर रहा था, क्योंकि हिंसक फिल्मों के युग में मधुर संगीत की कोई गुंजाइश नहीं थी। लोगों को कुछ नया चाहिए था और उन्होंने ग़ज़ल को चुना। समानांतर सिनेमा के कुछ और भी रुझान थे, ऐसे गीतों की आवश्यकता थी,  जिसे सुनने वाले समझ सकें। यही कारण था कि जगजीत और चित्रा सिंह, पंकज उदास,  तलत अजीज,  हरिहरन और जगजीत कौर को फ़िल्मों में गाने का अवसर मिला और दिग्गज पार्श्व गायिका आशा भोंसले ने फिल्म ‘उमराव जानमें गाए ग़ज़ल की सफलता का स्वाद चखा। खय्याम, जगजीत सिंह और कुलदीप सिंह बतौर संगीतकार प्रसिद्ध हुए।

हालांकि, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया हैबहुत से लोग गैर फिल्मी ग़ज़ल में प्रवेश कर गए।  ऐसा मज़ाक बनने लगा कि जो भी ‘कुर्ता, शॉल और हारमोनियम’  में नजर आते थे उन्हें रिकार्ड लेबल और संगीत कार्यक्रम आयोजकों द्वारा ग़ज़ल गायकों के रूप में प्रचारित किया जाता था। 80 के दशक के अंत तक मधुरता, फिल्म के संगीत में लौट आई और दर्शकों ने  इसका बाहें खोल कर स्वागत किया।  शराब के  विषय वाली ग़ज़लों में अचानक वृद्धि हुई और इसे शोर शराबे वाले बारों(Bars) में बजाया जाने लगा। 

इतनी  गिरावट के बाद भी कुछ कलाकारों ने सिमटे कलाकारों का ध्यान आकर्षित किया। हालांकि इनके पास पुराने गानों की तय सूची थी, नए गानों की नहीं। 90 के दशक में अशोक खोसला, घनश्याम वासवानीरूप कुमार और सोनाली राठौर,  सोमेश माथुर,  सुमोना राव विश्वास,  जसविंदर सिंह , सुदीप बैनर्जी और मोहम्मद वकील जैसे नए गायकों ने ऐल्बम जारी किए, लेकिन ग़ज़लों का समग्र बाजार तब तक प्रतिबंधित कर दिया गया था।  फिल्म गीतकार गुलजार और जावेद अख्तर ने ग़ज़ल ऐल्बमों में भी काम किए। बाद में, मुंबई में ‘खजाना’ और ‘ग़ज़ल बहार’ जैसे वार्षिक त्योहारों और टेलीविजन रियलिटी शो ने कई प्रतिभाओं को बढ़ावा देने में  मदद की, लेकिन बॉलीवुड के क्षेत्र में अपना सिक्का ज़माना काफी कठिन था।  

90 के दशक के अंत से, अचानक सूफियाना संगीत की तरफ लोगों का आकर्षण बढ़ा, जो स्वर्गीय नुसरत फतेह अली खां, आबिदा परवीन और वडाली ब्रदर्स के बदौलत हुआ। 

बहुत सारे युवा गायकों ने ग़ज़ल और सूफ़ी संगीत दोनों पर काम करना शुरू किया, जबकि वरिष्ठ संगीतकारों और गायकों ने अपना ध्यान ग़ज़लों पर ही केंद्रित रखा। कुछ ने फिल्मी गानों  को प्राथमिकता दी क्योंकि वहां ज्यादा प्रसिद्धि और वित्तीय सुरक्षा थी।  2011 में जगजीत सिंह की मृत्यु एक बड़ा झटका था।

इन सबके बावजूद भी, संगीत युग में ग़ज़ल ने अपना स्थान बनाया। ग़ज़ल संगीत कार्यक्रम कर रहे युवाओं की संख्या को देख कर कोई भी आश्चर्यचकित हो जाएगा।  सूची बहुत लंबी है लेकिन ये सराहनीय है कि वो बारीकियों को अच्छी तरह से जानते हैं और शैली के बारे में भावुक हैं। लेकिन कुछ चुनौतियां अभी भी मौजूद हैं। छोटे शहरों और अधिक से अधिक corporate जगत को इसे बढ़ावा देना चाहिए।  इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ग़ज़ल की  सराहना के मानक में भी कमी आई है।  80 के दशक की तुलना में बहुत कम लोग ही ग़ज़ल की जटिलताओं से अवगत हैं और शायरी की गहराइयों को समझते हैं। 

सकारात्मक बात यह है कि, YouTube और Streaming Platforms ने ग़ज़लों को, सरलता से आप तक पहुँचाया है और कुछ  वेबसाइट इसका अनुवाद भी करते हैं। हाल ही मेंग़ज़ल गायक तौशिफ अख्तर ने ‘ग़ज़ल क्या है’ नामक एक शृंखला  शुरू की , जो एक सम्पूर्ण YouTube गाइड के रूप में काम करती है। इस शैली को आगे बढ़ाने के लिए और भी प्रयासों की आवश्यकता है, जो हमे पंकज उदास और  तलत अजीज के समय में नजर आती थी। 

फिल्म ‘प्रेम गीत’ में जगजीत सिंह के गाए इस गाने को अनीता राज और राज बब्बर पर फिल्माया गया।

हमारे शीर्ष 10 ग़ज़लें 

कुछ ग़ज़लें और नज्में वर्षो से प्रतिष्ठित हैं। हालांकि, वे वरिष्ठ कलाकारों में से एक के द्वारा लोकप्रिय हुई। वे एक दूसरे के गाए संस्करणों को भी सुनते थे। Seniors Today पत्रिका ने ऐसे ही 10 रत्न चुनें हैं।

  • रंजिश ही सही- पाकिस्तानी दिग्गज संगीतकार मेहदी हसन ने इस ग़ज़ल को लोकप्रिय किया, जिसे शायर, अहमद फराज़ ने लिखा था। आज लगभग हर युवा ग़ज़ल गायक इसका अभ्यास करता है और लोगों के बीच इसे प्रस्तुत करता है।
  • ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पर रोना आया-  इस गाने को महान बेगम अख्तर ने अपनी अनोखी शैली में गाया। गाना क्रोध और वेदना से भरा है। गाने को शकील बदायूनी ने लिखा था।
  • वो काग़ज़ की कश्ती- जगजीत सिंह अपने संगीत कार्यक्रमों में अक्सर ये नज्म प्रस्तुत करते थे, जिसे  सुदर्शन फ़कीर ने लिखा था। ये नज्म आपको बीते हुए समय की यात्रा पर ले जाता है।
  • चुपके चुपके- भारत में,  ग़ज़ल की लहर 1982 में आई फिल्म ‘निकाह’ से हुई,  जिसके गाने  में ग़ज़ल का छोटा संस्करण इस्तेमाल किया गया । गुलाम अली के लिए ये पहले से ही बड़ी हिट थीग़ज़ल के शायर, हसरत मोहनी थे।
  • चिट्टी आई है पंकज उदास का सदाबहार हिट गाना 1986 में आई फिल्म ‘नाम’ का है, जिसका संगीत लक्ष्मीकांतप्यारेलाल का है और बोल आनंद बख्शी के हैं। गाना विदेश में रह रहे भारतीयों की भावनाओं को व्यक्त करता है ।
  • फिर छिड़ी रात लता मंगेशकर और तलत अजीज ने इस गाने को गाया जिसका संगीत खय्याम का और बोल मखदूम मोहिउद्दीन एवं बसर नवाज़ के थे। यह गाना 1982 में आई फिल्म ‘बाजार’ का है
  • इन आँखों की मस्ती- खय्याम  का लिखा एक और अद्भुत गाना जिसे आशा भोंसले ने गाया और शहरयार ने लिपिबद्ध किया। यह गाना 1981 में आई फिल्म ‘उमराव जान’ का है
  • आज जाने की ज़िद ना करो फरीदा खानूम के द्वारा प्रसिद्ध किए गए इस गाने के बोल फैयाज  हाशमी के थे। बाद में इस गाने का संस्करण आशा भोंसले ने भी गाया था।
  • काश ऐसा कोई मंज़र होता बहुत बाद में आई इस पसंदीदा ग़ज़ल को हरिहरन ने अपने ऐल्बम ‘काश’ में गाया है।

10.होंठों से  छु लो तुम- जगजीत सिंह द्वारा गाया गया एक और सुन्दर गाना, 1981 में आई फिल्म ‘प्रेम गीत’ का है।  इंदीवार का लिखा यह गीत दिल के तारों को छेड़ जाता है।

Latest Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

0FansLike
2,116FollowersFollow
7,660SubscribersSubscribe

Latest Articles