ललिता लाजमी की कल्पना लाजमी, प्रसिद्ध फ़िल्मकार और एक अनोखा व्यक्तित्व, के बारे में सुष्मिता भट्टराय से बातचीत
“कला साँस लेने समान है; मैं उसके बिना जी नहीं सकती”
कलकत्ता के एक सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्मीं और पली-बढ़ीं, चार भाइयों की एक बहन, कमर्शियल आर्टिस्ट बी बी बेनेगल की भाँजी, ललिता लाजमी को बचपन में कला की प्रेरणा उनकी दादी के कमरे में लगे राजा रवि वर्मा के तैलचित्रों से मिली. तभी से ललिता ने एक कलाकार बना तय कर लिया. बचपन के दिनों में हर सप्ताह उनकी दादी सभी बच्चों को ट्रैम में बिठाकर उनके मामा के घर ले जातीं, और पादुकोण परिवार तथा बेनेगल परिवार के सभी भाई-बहन एक साथ बैठकर फिल्में देखा करते.
बेनेगल मामा का घर उनके लिए प्रेरणा का एक और स्रोत बन गया. मामा द्वारा दीवार पर रंगे चित्र को ललिता और गुरुदत्त पादुकोण बड़े विस्मय से देखते, और उनके नन्हें रचनात्मक मन प्रभावित होते. जब ललिता पाँच बरस की थीं उनके मामा ने उन्हें रंगों का एक डिब्बा दिया और एक चित्रकला स्पर्धा में भाग लेने को कहा जिसमें उन्हें पहले क्रमांक का पुरस्कार मिला. पहली बार अखबार में उनका नाम छपा, लेकिन पुरस्कार लेने से पहले उन्हें कार्यालय जाकर अपनी चित्रकला दोहराने को कहा गया क्योंकि उनका बनाया चित्र किसी पाँच वर्षीय बच्चे का लगता ही न था. मामा को इस बात पर बहुत ग़ुस्सा आया और उन्होंने ललिता की प्रतिभा का परीक्षण लिए जाने से इन्कार कर दिया. इस प्रकार ललिता के चित्रकारिता के जीवन का प्रारंभ हुआ.
लेकिन ललिता की माँ चाहती थीं कि वे एक शास्त्रीय गायिका बनें, और उन्होंने ललिता को शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दिलानी शुरू की. ललिता ने सीखा भी, और बहुत आग्रह करने पर कलकत्ता में अपने समुदाय के समारोह में कुछ राग गाकर सुनाए. लेकिन उनकी रुचि गाने की अपेक्षा चित्र बनाने में अधिक थी. एक दिन संगीत की क्लास से लौटकर ज़िद्दी ललिता ने ठान लिया, “आज के बाद संगीत नहीं, मुझे केवल चित्र बनाने हैं”.
उनका परिवार मुंबई (तब बम्बई) के माटुंगा में आकर रहने लगा. अपनी माँ से ललिता की अनेक बातों में असहमति हुआ करती. लेकिन अपनी दादी से उनकी बहुत बनती थी. परिवार के एक स्नेही ने जल्द ही ललिता के लिए उनके ही समुदाय का एक अच्छा सा वर ढूंढ निकाला – एक आकर्षक नौसेनिक. ललिता विवाह करके कोलाबा रहने चली गईं.
विवाह के बाद उन्हें चित्रकार होने में कठिनाई आने लगी क्योंकि ससुराल वाले उनकी प्रतिभा की उपेक्षा करते थे. अनेक बार वे उनके बाहर जाने की प्रतीक्षा करतीं ताकि वे अपने पेंट-ब्रश वापस ले सकतीं. एक बार ललिता घर का सामान लाने के पैसों से एक कैनवास खरीद लाईं तो घर में कोहराम मच गया. जीवन एक संघर्ष था लेकिन ललिता आने वाले कल को बड़ी आशा से देख रही थीं.
प्यार से लालन-पालन
“कल्पना जब पैदा होनेवाली थी मैं माँ बनने को बड़ी उत्सुक थी.”
ललिता को किसी संस्था में जाकर कला का प्रशिक्षण लेने में कोई रुचि नहीं थी, फिर भी उन्होंने चित्रकला का एक कोर्स करने का निश्चय किया. उसी समय वे कल्पना से गर्भवती हुईं. पहले तो उन्हें इस बात से शर्म आती थी क्योंकि क्लास में वे एकमात्र विवाहिता थीं. कॉलेज की अन्य लड़कियाँ और भी बहुत कुछ सीख रही थीं मगर ललिता तो केवल एक गृहिणी थीं. इसका कुछ खेद तो अवश्य था लेकिन ललिता को बच्चे बहुत प्यारे थे. जब कल्पना का जन्म हुआ तो ललिता और उनके पति बहुत प्रसन्न हुए लेकिन ललिता के सास-ससुर कुछ नाराज़ थे क्योंकि उन्हें एक पोते की अपेक्षा थी. कल्पना को बड़े लाड़-प्यार के साथ पाला गया, उसपर पूरा ध्यान दिया गया और काफी समय तक वह इकलौती संतान रही. ललिता और गोपी ने अपनी ओर से उसे अपना सर्वोत्तम दिया.
परंपरागत परिवारों से होने के कारण ललिता और गोपी के माता-पिता उनके लिए हर बात तय किया करते. पर जब वे स्वयं माँ-बाप बने तो उन्होंने अपने बच्चों को अपनी इच्छाओं की पूर्ति का पूरा स्वातंत्र्य दिया. कल्पना और देवदास दोनों अपनी अपनी तरह से मेधावी थे और बचपन से ही जानते थे वे क्या करना चाहते हैं. देवदास शायद अपने पिता से प्रेरित होकर शिप्पिंग के क्षेत्र में जाना चाहता था, और कल्पना सिनेमा में.
महत्वाकांक्षी माँ
“मैं चाहती थी कि कल्पना अपने करियर में अत्यंत सफल हो” ललिता याद करती हैं.
जब कल्पना चौथी क्लास में थी तो उसकी एक टीचर ने उसकी अभिनय की रुचि को पहचाना और उसे एक नाटक में प्रमुख भूमिका करने का अवसर दिया. पढ़ाई में वह बहुत तेज़ थी और कॉलेज जाने के समय तक स्कूल के नाटकों तथा वक्तृत्व स्पर्धाओं में भाग लेती रही. स्कूल के बाद वह सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज में दाख़िल हुई जहाँ फ़ारूक़ शेख़ उसके सीनियर थे, और उसने फ़ारूक़ द्वारा निर्देशित एक नाटक में हिस्सा लिया. अभिनय के प्रति उत्साह और उमंग उसमें कूट-कूट करे भरे थे.
ललिता के मन में भी अपनी बेटी के लिए बड़ी आकांक्षा थी. उन्होंने उसकी हर संभव सहायता की – अभिनय की एक पत्रिका ‘एनेक्ट’ से परिचय कराया, उसे एफटीआइआइ और एनएसडी में भर्ती कराने तथा एमआइटी, बोस्टन में फिल्म निर्माण के लिए स्कॉलरशिप दिलाने के प्रयत्न किए. लेकिन कल्पना फिल्म का मात्र सैद्धान्तिक प्रशिक्षण लेने से इन्कार करती रही. ललिता की तरह कल्पना भी किसी संस्था में जाना नहीं चाहती थी, उसे व्यावहारिक ढंग से फिल्म निर्माण सीखना था, और ‘निशांत’ के सेट पर अपने मामा श्याम बेनेगल के साथ काम करना शुरू कर दिया.
एक शाम को पादुकोण भाइयों में से एक, आत्माराम के जुहू निवास पर बेनेगल आसाम के एक जानेमाने गायक और संगीतकार भूपेन हज़ारिका का एक रेकॉर्ड लेकर आए. सभी को उनका संगीत पसंद आया, खरी-खरी कहने वाली कल्पना को छोड़कर.
ललिता ने आत्माराम को सुझाव दिया कि वे अपनी अगली फिल्म ‘आरोप’ के संगीत के लिए हज़ारिका को चुनें, जिसके लिए हज़ारिका मुंबई आए. एक शाम आत्माराम ने भूपेन-दा को अपने घर भोजन पे बुलाया, और यहाँ कल्पना के उनसे प्रत्यक्ष मिलने से एक विलक्षण बात हुई. पहली नज़र में प्यार हो गया. खाने की मेज़ पर अपने सामने बैठे, अपने पिता की उम्र वाले इस व्यक्ति के मनोहर व्यक्तित्व और मधुर आवाज़ से कल्पना अत्यंत प्रभावित हुई.
कल्पना की कहानी
ललिता लाजमी: कल्पना 18 साल की नवयुवती थी, उसे अपने पिता की उम्र के एक व्यक्ति से प्यार हो गया था. उस समय उसने कुछ नहीं बताया, पर अब मैं जानती हूँ. उस रात भोजन के समय ऐसा हुआ था. उसे भूपेन-दा भा गए थे. उन्हीं दिनों मेरी भाभी गीता का देहांत हुआ था. सारे बच्चे मिलजुलकर समय बिताया करते, और इसी बहाने से कल्पना भूपेन-दा से मिला करती, पर शुरू शुरू में यह मुझे पता नहीं था. भूपेन-दा उस वक़्त खार या सांताक्रूज़ के किसी होटल में रहा करते थे. हमारे नाटक के ग्रुप के एक मित्र ने बताया कि कल्पना भूपेन-दा के साथ समय गुज़ारती है. मेरी समझ में नहीं आया कि मैं क्या करूँ. अब सोचती हूँ कि मैं एक अच्छी माँ नहीं थी, इसीलिए इस मामले को सुलझा न सकी. उसी मित्र ने यह भी बताया कि भूपेन एक अच्छा आदमी नहीं है और कई लड़कियों की ज़िंदगी बर्बाद कर चुका है. वह भरोसे लायक नहीं है और यह संबंध शादी तक नहीं पहुँच पाएगा.
उन दिनों मोबाइल तो नहीं होते थे, पर कल्पना घर की लैंडलाइन पर घंटों बातें किया करती थी. वह उन्हें मिलने को तरसती, बेहद बेचैन रहती, उनके साथ होना चाहती. एक दिन मुझसे बोली, “मम्मी, मैं भूपेन-दा के साथ कलकत्ता जा रही हूँ, वे मुझे बंगाली फिल्म निर्माता डी जी गांगुली पर एक डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाने में सहायता करनेवाले हैं”. मैंने उससे उनके रिश्ते के बारे में कुछ नहीं पूछा और जो उसने कहा उसपर विश्वास कर लेना बेहतर समझा. कल्पना ने यह कहकर आश्वस्त किया कि गुरुदत्त का बेटा अरुण भी उसके साथ जानेवाला है.
डॉक्युमेंट्री बन गई, भूपेन-दा ने संगीत दिया, अरुण लौट आया, और कल्पना यह कहकर वहीं रह गई कि कुछ काम निपटाने बाक़ी हैं.
हमेशा के लिए चले जाना
जिन दिनों कल्पना कलकत्ता में थी, देवदास स्कूल में था और मेरे पति जहाज़ पर. मैं घर में अकेली थी और बहुत एकाकी महसूस करती थी. करने को कुछ था नहीं. मित्र भी कोई नहीं थे. समान विचारों वाले मुश्किल से मिल पाते. कल्पना जब गई थी मुझे लगा था वह लौट आएगी, लेकिन एक दिन जब उसकी आलमारी खोली तो वह एकदम ख़ाली थी. वह हमेशा के लिए जा चुकी थी. मुझे बड़ा धक्का लगा और मैं फूट-फूट कर रोने लगी. मैंने श्याम से उसे पत्र लिखने को कहा. उसने पत्र में लिखा कि वह लौट आए और उसके साथ फिल्म निर्माण का काम करे. उसने इन्कार कर दिया. मैं तब एक स्कूल में पढ़ाती थी और जैसे ही छुट्टियाँ हुईं मैं कल्पना को वापस लाने गई.
कल्पना खुलेआम भूपेन-दा के साथ रहने लगी थी. मैंने उसे घर लौट आने के लिए बहुत मनाया. वह नहीं मानी. सिर्फ घर छोड़ना नहीं, उसके रहन-सहन के ढंग से मेरे मन को बड़ा आघात पहुंचा. कितने ऊंचे विचारों और महत्वाकांक्षाओं से हमने उसे पाल-पोस कर बड़ा किया था, और वहाँ भूपेन-दा के घर में, उनके सोचने का ढंग – वे बहुत टेढ़े इंसान थे. बार बार उनका मूड बदलता, बहुत ग़ुस्सा आता, और वे एक शराबी था. कल्पना कहती है कि पिताजी भी तो बहुत पीते थे और उसने ख़ुशी हासिल करने के ख़याल से घर छोड़ा था….. पता नहीं, मुझे तो वह घर भी वैसा ही लगा. शराब का फ्लास्क हमेशा भूपेन-दा के साथ रहता.
मैंने उसे इस सब के साथ जीते हुए देखा. उस वक़्त उन्होंने शादी नहीं की थी और वह एक पार्टनर की तरह रह रही थी. आरंभ में भूपेन-दा ने इस संबंध को स्वीकार नहीं किया क्योंकि उन्हें अपनी छवि का ख़याल था. और कल्पना हर चीज़ अपने ही तरीके से करना चाहती थी. वह शुरू से ही बहुत निडर और लीक से हटकर चलनेवाली लड़की थी. शादी-ब्याह में उसका विश्वास नहीं था, बहुत सी बातों में उसका विश्वास नहीं था. और वे बहुत प्रतिभाशाली थे, इसमें कोई दो राय नहीं, लेकिन व्यक्ति के रूप में वे मुझे पसंद नहीं थे. एक कलाकार के नाते वे मुझे अच्छे लगते थे और मैंने हमेशा अच्छे काम की सराहना की है.
मैं रोती-बिलखती रही, पूछती रही, “तुम घर नहीं लौटोगी?” पर उसने कोई जवाब नहीं दिया. जिस दिन मैं वापस आ रही थी वह मुझे स्टेशन तक छोड़ने भी नहीं आई. भूपेन-दा वहाँ पहुँच गए और मुझसे बोले, “कल्पना अब मेरे साथ रहेगी”. मुझे लगा कि कल्पना ने मेरे साथ धोखा किया है. औलाद नहीं जानती कि उसे पालने-पोसने के लिए माँ-बाप क्या क्या तकलीफ़ें उठाते हैं. मैंने जान लिया कि रोने-धोने से कोई फायदा नहीं क्योंकि उसने ठान ली थी. उसने भूपेन-दा के साथ रहते हुए पहले कुछ महीनों तक हमसे अधिक बात नहीं की. और मैं तो सिर्फ उसकी आवाज़ सुनने को तरसती रहती थी.
कल्पना और भूपेन-दा साथ रहे और कल्पना ने उनके जीवन को संभाल लिया. भूपेन-दा संगीत के शो किया करते और यही उनकी आजीविका थी. उन्होंने कल्पना की पहली डॉक्युमेंट्री का संगीत तैयार किया था, और बाद में कल्पना की सभी फिल्मों का संगीत भी उन्होंने ही दिया. उनके चाहनेवले कहते कि भूपेन-दा के संगीत के कारण ही कल्पना की फिल्म चलती है. लोग चाहे कुछ भी कहें, उनके संगीत ने फिल्मों को अवश्य बेहतर बनाया. मुझे लगता था कि अगर वह मुंबई में रह जाती तो उसकी ज़िंदगी अधिक सफल होती. वह श्याम के साथ काम कर चुकी थी, प्रतिभावान थी, अपने समय से बहुत आगे थी.
बरसों बाद, जब मंदी का दौर आया और भूपेन-दा को काम मिलना बंद हो गया, तो कल्पना ने मुझे लिखा कि वह मुंबई आ रही है.
मुंबई का जीवन
मैं एलायंस फ़्रांसेज़ में फिल्मों के प्रदर्शन देखने जाया करती थी. वहाँ मेरी भेंट फिल्म समीक्षक ख़ालिद मोहम्मद से हुई. उन्होंने कल्पना के बारे में पूछा तो मैंने कहा कि वह भूपेन-दा के साथ कुछ डॉक्युमेंट्री फिल्में बना रही है, और अपनी पहली फ़ीचर फिल्म ‘एक पल’ पूरी कर चुकी है. ख़ालिद एन एफ डी सी के पैनल पर थे, उन्होंने एन एफ डी सी को एक स्क्रिप्ट भेजने का सुझाव दिया. कल्पना ने स्क्रिप्ट भेजी जो बिना किसी अड़चन के स्वीकृत हो गई और कल्पना भूपेन के साथ मुंबई आ गई.
अबकी बार भूपेन-दा एक बिलकुल ही अलग व्यक्ति थे. सिगरेट पीना छोड़ दिया था, केवल पार्टी वगैरह में शराब लेते. कल्पना स्वभाव से बहुत शक्तिशाली थी, और जो चाहती था वह पाकर ही रहती. ये दोनों मेरे साथ 5-6 बरस तक रहे. भूपेन-दा बड़े मज़ेदार आदमी थे – कथाकार, कवि, आकर्षक, और बहुत अच्छा खाना पकाते. बहुत स्वादिष्ट झींगा करी बनाते. अच्छे दिन थे.
बाद में कुछ पैसे हाथ आने पर उन्होंने पास ही में घर ख़रीद लिया, पर भूपेन-दा बहुत बीमार हो गए थे. उनका ऑपरेशन भी हुआ, लेकिन वे चल बसे. मैं हमेशा की तरह कल्पना के साथ थी. मैं अपनी बेटी को अकेला नहीं छोड़ सकती थी. वह उनका शोक मना रही थी और इसीलिए उनपर एक पुस्तक लिखी.
मैं अपने आप को कल्पना के जीवन से बाहर पाने लगी. एक दिन मैंने उससे पूछा, “क्या मैंने ज़िंदगी में तुम्हारे लिए कुछ नहीं किया?” उसने सिर्फ इतना कहा, “मेरे ख़याल से तो कुछ नहीं किया.” मेरा जीवन उसकी देखभाल में इतना अधिक बीता था कि मैंने देवदास का ध्यान भी ठीक से नहीं रखा, इसलिए जो उसने कहा मुझे उसका बहुत बुरा लगा. पर शायद यह जीवन का एक कड़वा सत्य है, संतान माँ-बाप की कोई परवाह नहीं करती. कुछ ही समय बाद कल्पना के किडनी के कैंसर का पता चला. उसे डायालिसीस करवाना पड़ता जो काफ़ी महँगा था. शुरू में बहुत से मित्रों और फिल्म उद्योग के लोगों ने उसकी सहायता की, पर आगे ये संभव नहीं था. सौभाग्यवश मेडिक्लेम काम आया. मैं अपनी बेटी को पीड़ा और निस्सहाय होने से लड़ता हुआ देखती रही. वह मुझे दूर हटाती रही, शायद वह नहीं चाहती थी की उसकी माँ भी उसका दर्द झेले. पर मैं अंत तक उसके साथ रही, और मुझे याद है कि वह अपनी पुस्तक के प्रकाशन के लिए कितनी उत्सुक थी.
अपने देहांत से कुछ दिन पहले उसने कहा, “मम्मी, मुझे कुछ पूछना है….क्या मैं मर जाऊँगी?”
मैंने कहा, “कल्पना, तुम मुझे पहले नहीं जाओगी, पहले मैं जाऊँगी, बाद में तुम.”
मुझे क्या पता थी कि ये उसके अंतिम दिन हैं. वह अस्पताल से लौटकर नहीं आई.