दीपा गहलोत पीछे मुड़कर देखती है, एक ऐसी असंभव परंतु देशभक्ति से ओत-प्रोत फिल्म, जो आज मुख्यतः, अब अपने गीतों के लिए जानी जाती है।
समाधि (1950)
1950 में आई फिल्म “समाधि” को जिन लोगों ने नहीं देखा है, या इसके बारे में सुना तक नहीं है वो अवश्य ही कम से कम इसके झूमने वाले गाने “गोरे गोरे बांके छोरे” पर पैर थिरकाए होंगे या स्वतंत्रता दिवस पर इस फिल्म का देशभक्ति गाना “कदम कदम बढ़ाए जा” की गूंज दूर से जरूर सुनी होगी।
यह फ़िल्म स्वतंत्रता के तुरंत बाद बनाई गई, जब देश की मनोदशा, उत्साहित और घनिष्ठता के मिश्रण वाली थी। फिल्म निर्देशक रमेश सहगल ने इंडियन नैशनल आर्मी (भारतीय राष्ट्रीय सेना) के ऊपर फिल्म बनाकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस को श्रद्धांजलि अर्पित की। यह भारत में बनी कुछ जासूसी फ़िल्मों में से एक हैं(इस शैली की फ़िल्में अब ज्यादा लोकप्रिय हो गई है) और निश्चित रूप से एक ऐसी फिल्म, जिसकी मुख्य भूमिका निभाने वाली अभिनेत्रियां कैथलिक लड़कियों( सम्भवतः एंग्लो-इंडियन) के चरित्र को दर्शाती थी, जो हिन्दी फिल्म में दुर्लभ है।
यह फ़िल्म जन गण मन(आज यह गाना दंगों का कारण होगा) के बदलाव से शुरू होती है और नेताजी( नेताजी की भूमिका अभिनेता कॉलिन ने निभाई जो काफी हद तक सुभाष चंद्र बोस जैसे दिखते थे, इस फिल्म के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि वो गायब ही हो गए) का अनुसरण करती है, जो उस समय मलाया (अब मलेशिया) में मौजूद हैं, जहां वह, वहां बसे हुए भारतीय समुदाय के लोगों को स्वतंत्रता के प्रति जागृत करने वाले भाषण देते हैं। वह वहां एक हार की नीलामी करते है, कुछ भयंकर बोली लगने के बाद इसे शेखर( अशोक कुमार) द्वारा 7 लाख रुपये( उस समय के लिए असीम धन राशि) में खरीद लिया जाता है, जो शेखर का समस्त धन है और वो आई.एन.ए में भी सम्मलित होता है। शेखर के अंधे पिता राम प्रसाद(बद्री प्रसाद) अपने पुत्र के इस निर्णय पर गर्व महसूस करते हैं और यह गर्व का कारण इसलिए भी है क्योंकि उनके बड़े पुत्र सुरेश(श्याम) ने अंग्रेज़ी सेना में काम करके उनका देशभक्ति से भरा हृदय तोड़ दिया था। सबसे छोटा बेटा प्रताप(उन्हें शशि कपूर के रूप में श्रेय दिया जाता है लेकिन समानता के बावजूद उनकी आयु मेल नहीं खाती) अपने पिता की तरह ही एक देशभक्त है।
मुख्य रूप से, शेखर को गिरफ्तार करने के लिए सुरेश को मलाया भेजा जाता है, जहां उनकी मुलाकात उनकी नर्तक प्रियतमा डॉली डिसूज़ा( कुलदीप कौर )से होती है। डॉली डिसूज़ा जापानियों से नफ़रत करती है क्योंकि उन लोगों ने उसके पिता की हत्या, एक अंग्रेज़ी सहयोगी होने के कारण कर दी थी और अब वो प्रतिशोध चाहती है। चूंकि नेताजी ने जापानियों के साथ गठबंधन किया है और डॉली अपने जानलेवा और रहस्यमयी बॉस (मुबारक) के साथ मिलकर आई.एन.ए के पतन की योजना बनाती है।
इसी बीच, शेखर की मुलाकात डॉली की बहन लिली (नलिनी जयवंत) से होती है और उन्हें लिली से प्यार हो जाता है। बॉस, शेखर के उत्सुक भावों की समीक्षा करता है जब लिली को शेखर, “गोरे गोरे” गाने पर नाचते निहारता रहता है। वह डॉली को मजबूर करता है कि शेखर के पास से आई.एन.ए का एक अति महत्वपूर्ण दस्तावेज चुराने के लिए, लिली को यह काम सौंपे। दस्तावेज में निहित सूचना अंग्रेजों तक पहुँच जाती है, जिसके परिणाम स्वरूप आई.एन.ए को बहुत बड़ा नुक़सान होता है। बॉस, डिसूज़ा बहनों द्वारा एक कार्यक्रम के दौरान नेताजी की हत्या की साजिश की योजना बनाता है, परंतु निशानेबाज विफल हो जाता है।
लिली व्याकुल है, परंतु शेखर से इतना प्रेम करती है कि वो उससे अपने संबंध नहीं तोड़ सकती। उसे, शेखर से सूचना प्राप्त करने के लिए दोबारा मजबूर किया जाता है, जो(शेखर) मिशन से लौटने के बाद उससे शादी करने का वादा करता है। विशिष्ट फ़िल्मी अंदाज़ में सुरेश और शेखर रणभूमि में एक दूसरे से भिड़ते हैं और दोनों घायल हो जाते हैं।
डिसूज़ा बहनों को जासूसी करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है और आई.एन.ए की अदालत उनको मृत्युदंड की सजा सुनाती है। अपने साथियों की हत्या के लिए शेखर अपने आप को जिम्मेदार ठहराता है और इसे एक तपस्या के रूप में लेता है। ब्रिज को उड़ाने के लिए इस आत्मघाती मिशन में स्वयं का नाम देता है, और यह आगे चलकर कोहिमा में अंग्रेजों और आई.एन.ए के बीच की लड़ाई बन जाती है।
शेखर नहीं जानता है कि नेताजी ने दोनों बहनों को क्षमा कर दिया और उन्हें अंग्रेजों की जासूसी करने के लिए अपने पक्ष में भर्ती कर लिया है। शेखर मिलन स्थान पर पहुंचता है और वहां वह लिली को पाता है। डॉली, सुरेश और उनका सर्वव्यापी बॉस अभी भी दुश्मन पक्ष के वफादार है।
शेखर और लिली ब्रिज को उड़ाने में सफल हो जाते हैं लेकिन चारों तरफ बंदूकों से गोलियां चल रही हैं, जहां से जीवित निकलने का कोई रास्ता नहीं है; घायल अवस्था में दोनों रेंगते हुए भारतीय मिट्टी में पहुंचते है और मर जाते हैं। उस स्थान पर जहां उनकी मृत्यु होती है, उनके बलिदान को चिन्हित करने के लिए समाधि बनाई जाती है।
इतने वर्षो के बाद ऐसा दावा किया जाता है कि यह फ़िल्म(कमर जलालाबादी के लिखे संवाद) सच्ची घटना पर आधारित है परंतु ऐसा दूर तक नहीं था। लेकिन यह एक मनोरंजक फिल्म है जो अंग्रेजों को नष्ट किए बिना ही राष्ट्रवाद के गर्व को अपनी आस्तीन में धारण करती है। कथित रूप से, ऐसा दावा किया जाता है कि जब यह फिल्म बन रही थी, तो अशोक कुमार और नलिनी जयवंत एक दूसरे से प्रेम करते थे और यह चिंगारी इस फिल्म में भी नजर आती है। राजेंद्र कृष्ण के लिखे बोल को संगीत निर्देशक सी. रामचन्द्र ने मधुर संगीत में पिरोया है। अशोक कुमार और नलिनी जयवंत का फ़िल्मों में लंबा और सफल करियर रहा है। एक वर्ष के पश्चात फिल्म “शबिस्तान” की शूटिंग के दौरान, घुड़सवारी दुर्घटना में कम उम्र में ही श्याम की मृत्यु हो गई, 1960 में कुलदीप कौर का निधन अनुपचारित ‘टिटनस’ से हुआ।