Saturday, November 16, 2024
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बहुत करीब और देशभक्ति के साथ श्री भारत, मनोज कुमार

जहाँ, भारत अपने 73वें स्वतंत्रता दिवस का उत्सव मना रहा है, वहीं पूरी दुनिया में हम, मौजूदा सर्वव्यापी महामारी के चपेट में आने के कारण, अकल्पनीक रूप से भौतिक मानसिक और भावनात्मक स्तर पर बदलाव देख रहे हैंअच्छे पुराने दिनों की तड़प में सुगुना सुन्दरम, हमें अनुभवी अभिनेता मनोज कुमार के साथ स्मरण की उस यात्रा पर लेकर जाती है जहां मनोज कुमार ने अपनी उमंग के दिनों में और लंबे समय तक भारत की शुद्ध और देशभक्ति की भावना को अपने में  सन्निहित किया था

मैंने भारत नाम की पूजा की

मनोज कुमार का जन्म 1937 में,  स्वतंत्रता पूर्व अंग्रेज़ी शासन के अधीनता वाले भारत में उत्तर पश्चिम सीमांतीए क्षेत्र एबटाबाद (अब पाकिस्तान में है और यह सबसे खूंखार आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को संरक्षण देने के लिए बदनाम है) में, हरिकिशन गोस्वामी के नाम से हुआ था।  भारत पाकिस्तान के विभाजन के दौरान, उनका प्रवास भारत में एक शरणार्थी के रूप में हुआ। राष्ट्र के लिए, अंग्रेजों से स्वतंत्रता की लड़ाई जो उन्होंने अपने चारों ओर देखी, इसने युवा हरिकिशन के मन पर एक गहरी छाप छोड़ी। विभाजन के बाद, उनका परिवार दिल्ली में आकर बस गया और अपने जीवन को पुनः बनाने में जुट गया। हरिकिशन बाद में मनोज कुमार के नाम से जाने गए। मनोज कुमार को “श्री भारत” की व्यक्तित्व और उसकी भूमिकाओं को निभाने के लिए प्रसिद्धि हासिल हुई।

हरिकिशन अस्थिर राजनीतिक वातावरण में बड़े हुए, जब भारत अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रहा था। अपने बचपन और जवानी को याद करते हुए वो बतलाते हैं, “ नेताजी सुभाष चंद्र बोस उनके प्रथम प्रेम थे। नेताजी ने देश को स्वतंत्रता 21 अक्तूबर, 1943 (जब उन्होंने आजाद हिंद फौज का गठन किया- स्वतन्त्र भारत का अंतरिम शासन) को ही दिला दी थी और सोवियत संघ रूस सहित एक दर्जन अन्य देशों द्वारा इसे स्वीकार किया गया था। दुःखद बात यह है कि हमारे अपने नेताओं ने उन्हें नजर अंदाज किया, जिन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को इसका श्रेय तक भी नहीं दिया था।

“राष्ट्रवाद के साथ मेरा पहला सामना तब शुरू हुआ जब मैं अन्य बच्चों के साथ एक विरोध जुलूस (भारतीय राष्ट्रीय सेना के तीन अधिकारियों के विरुद्ध) में भाग लेने के लिए लालकिला गया और मुझे वहां अन्य बच्चों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया तब मेरी आयु दस वर्ष भी नहीं थी। मैंने कुछ दिन कारावास में बिताए। तब मेरे पिताजी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं आई.एन. का मतलब भी जनता हूं। मैं नहीं जानता था, परंतु स्वतंत्रता सेनानियों के उत्साह और देश की स्वतंत्रता के लिए मेरे अन्दर एक आग थी”।

 

वो अपने स्मृति में झांकते है, और याद करते हैं- “जब मैं 13 वर्ष का था तो गांधी जी मेरे गाँव आए थे। वो मुस्कराते हुए बताते हैं, “मेरा दूसरा प्रेम भगत सिंह और उनकी टोपी थी”। वो आगे बताते हैं, “वस्तुतः ये सारे लोग मेरी प्रणाली का हिस्सा बन गए, यह हवा जिसमें मैं साँस ले रहा था, राष्ट्रव्यापी वातावरण और मेरा पालन पोषण”। ये सब बताता है कि क्यूँ देशभक्ति हरिकिशन गोस्वामी के रक्त और सांसो में थी, इससे कहीं पहले कि जब देशभक्ति एक फैशनेबल शब्द बन गया।

स्वतंत्रता जीत ली गई और अतीत बन गई, लेकिन हरिकिशन जिनका फ़िल्मों के प्रति अत्याधिक रुझान था, वह दिल्ली से अपना स्नातक समाप्त करने के बाद फिल्म उद्योग में सम्मलित होने के लिए बॉम्बे आ गए और बीस वर्ष की आयु में एक साधारण शुरुआत की। वह दिलीप कुमार के बहुत बड़े प्रशंसक थे, अतः उन्होंने अपना नाम बदलकर मनोज कुमार रख लिया, जो 1949 में आई फिल्म “शबनम के वरिष्ठ कलाकार(दिलीप कुमार) का चरित्र था।

कुछ फ़िल्मों को करने के बाद, अब वो मुख्य भूमिका में नजर आने लगे और 60 के दशक में  मनोज कुमार ने स्वयं को  बहुमुखी प्रतिभा वाले और लोकप्रिय रोमांटिक कलाकार के रूप में स्थापित किया। इसके अलावा उन्होंने एक गहरी सोच वाले रहस्यमयी  कलाकार की भी छवि पेश की। उन्होंने कई सराहनीय फ़िल्मों में काम किया, जैसे “वो कौन थी”( साधना के साथ), “हिमालय की गोद में” और “हरियाली और रास्ता”(माला  सिन्हा के साथ), “पत्थर के सनम” और “नील कमल”( वहीदा रहमान के साथ), “गुमनाम”, “पूरब और पश्चिम”(सायरा बानो के साथ),  “दो बदन”(आशा पारेख के साथ), “संयासी”(हेमा मालिनी के साथ), “दस नम्बरी”, “बेईमान” और व्यावसायिक रूप से कई सफल फ़िल्में भी दी।

एक देशभक्त अभिनेता के रूप में उनका जन्म 1965 में आई फ़िल्म “शहीद” से हुआ, जिसमें उन्होंने, क्रांतिकारी भगत सिंह के सच्चे जीवन पर आधारित फिल्म में, नायक की भूमिका निभाई। और उन्हें फ़िल्मों में भारत नाम से पुकारा जाने लगा। मनोज कुमार कहते हैं- “जब मैंने फ़िल्मों में काम करना शुरू किया, तो मैं एक रोमांटिक अभिनेता के रूप में अच्छा काम कर  रहा था पर भारत बनने के लिए मैंने अपने जीवन की प्रारंभिक सफलताओं और करियर को दांव पर लगा दिया। इसके बाद मेरी फ़िल्म “उपकार” आई जिसमें मैंने पहली बार भारत की भूमिका  निभाई। कहानी का नायक एक जवान किसान था। (परस्पर रूप से लालबहादुर शास्त्री ने मनोज कुमार से यह आग्रह किया कि वो उनके द्वारा दिया गया नारा- “जय जवान जय किसान” पर एक फिल्म बनाये- यह फिल्म मनोज कुमार के बतौर निर्देशक पहली फिल्म थी)। फिल्म “शोर” में मैंने शंकर नाम के व्यक्ति की भूमिका निभाई जो भारत की कहानी नहीं थी। मैंने भारत नाम की पूजा की है”।

वो आगे बताते हैं- “मुझे याद है कि कैसे वी.शांताराम, जो एक वरिष्ठ और बहुत बड़े फिल्म निर्देशक थे, मुझसे एक दिन मिले और मैंने उनके पैर छु कर आशीर्वाद लिया तो उन्होंने कहा; “तुम बहुत अच्छा काम करते हो, तुम दिल से काम करते हो”। मैंने अपने हाथ जोड़े और कहा “आपसे ऐसी बातें सुनना मेरे लिए प्रशंसा की बात है, लेकिन मैं दिल से नहीं बल्कि आत्मा से काम करता हूं”, और तब उन्होंने मुझे पकड़ कर अपने सीने से लगा लिया”।

महान अभिनेता कहते हैं, ये मेरे लिए गौरव की बात है: जब मैं भारत की भूमिका निभाता था तो मैंने कभी भी अपनी नायिकाओं को स्पर्श नहीं किया। उन फ़िल्मों में, मैंने नायिकाओं की मर्यादा को हमेशा ध्यान रखा”। मेरे(सुगुना सुन्दरम) मन में दर्जनों प्रश्न उठे लेकिन मैंने अपनी जिह्वा पर ताला लगा दिया। मनोज कुमार ने तब से कई फ़िल्मों जो देशभक्ति के विषय पर आधारित थी, उसमें अभिनय और निर्देशन किया और अपने लिए भारत कुमार/श्री भारत के नाम को अर्जित किया। आज भी उन्हें बॉलीवुड के देशभक्त अभिनेता के रूप में जाना जाता है।

 

मनोज कुमार, साधना के साथ फिल्म वो कौन थी में, एक आदर्श गीत “लग जा गले” का दृश्य

देशभक्ति का जज़्बा

फ़िल्म “उपकार” मनोज कुमार के लिए सफलता की बाढ़ लेकर आई और बहुसंख्या में उन पर प्रशंसाओं और पुरस्कारों की बारिश होने लगी। उनकी फ़िल्मों में अच्छे देशभक्ति के गीत थे जिसे आज भी उतनी ही सरगर्मी और जज़्बे से गाया जाता है। ‘मेरे देश की धरती’, ‘है प्रीत जहां की रीत सदा’, ‘चना जोर गरम’ और फिल्म क्रांति का शीर्षक गीत ‘क्रांति’ जैसे देशभक्ति गीतों के साथ ही कई बहु लोकप्रिय अविस्मरणीय गाने जैसे ‘क़समें वादे प्यार वफा सब’, ‘मैं ना भूलूंगा’,‘जिंदगी की ना टूटे लड़ी’ और कई अन्य गाने उनकी फ़िल्मों से हैं।

70 के दशक ने, मनोज कुमार को एक सफल अभिनेता और निर्देशक के रूप में देखा, जहां उन्होंने स्वयं के निर्देशन में सामाजिक रूप से उत्तेजक फ़िल्म “रोटी कपड़ा और मकान”, “संयासी” और “दस नम्बरी” जैसी फ़िल्में बनाई।

80 के दशक के प्रारंभ में कास्ट और फिल्म की सेटिंग के मद्देनजर फिल्म “क्रांति”, मनोज कुमार की सबसे बड़ी फ़िल्म थी। इसकी कहानी भारत के स्वराज के  संघर्ष की कहानी थी। फिल्म “क्रांति” में बड़ी स्टार कास्ट थी, जिसकी मुख्य भूमिका में मनोज कुमार के आदर्श दिलीप कुमार थे। जब फिल्म 70mm के बड़े पर्दे पर दिखाई गई तो दर्शक पागल हो गए और फिल्म के पर्दे पर पैसों की बारिश करने लगे। सभी मापदण्डों पर यह अभिनेता-निर्देशक की अंतिम सफल फ़िल्म भी थी।

80 के दशक के मध्य में उन्होंने अभिनय करना छोड़ दिया और शताब्दी के पूरे होने पर, बतौर निर्देशक उन्होंने अपनी अंतिम फिल्म “जय हिंद”, जो एक देशभक्ति की फिल्म थी, जिसे उन्होंने अपने छोटे पुत्र कुनाल के साथ किया, जो बॉक्स ऑफिस पर कब्ज़ा करने में विफल रही।

मनोज कुमार ने “श्री भारत” के चरित्र और शारीरिक भाषा को अपने अंदर  इस हद तक सन्निहित कर लिया   जिसे शीघ्रता से पहचाना जा सकता था। लगभग 5 दशकों के अपने लंबे फिल्मी जीवन में उन्होंने विभिन्न स्तरों पर कई पुरस्कारों को अर्जित किया। 1992 में, भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उनकी फ़िल्मों ने कई राष्ट्रीय पुरस्कार भी हासिल किए और 2016 में हिंदी फिल्म सिनेमा में उनके योगदान के लिए उन्हें भारतीय सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार, दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

एक पवित्र व्यक्ति, जिसने अपने धर्म को अपने अंगवस्त्र में धारण नहीं किया। 2011 में, शिरडी के साई बाबा संस्थान नामक संस्था ने उनके सम्मान में शिरडी के पीम्पलवाडि मार्ग का नाम बदल कर मनोज कुमार गोस्वामी मार्ग रखा।

ऐसा कोई दूसरा अभिनेता नहीं हुआ, जो “श्री भारत” की भूमिका को, जिस विश्वास से मनोज कुमार ने निभाया है, उसी विश्वास से अपने अभिनय में सन्निहित कर सके। मेरे ये पूछने पर कि वर्तमान अभिनेताओं में वो किसे इस मशाल को आगे लेकर जाते देखते हैं तो 80 वर्ष से अधिक आयु के अभिनेता ने अपने कंधे को झटकते हुए अविश्वास में संकेत दिया और कहा: “लोग अब ऐसी देशभक्ति की फ़िल्में नहीं बनाते जिसमें वो जज़्बा हो, वर्तमान समय में देशभक्ति का पूरा अर्थ ही बदल गया है। देशभक्ति की राष्ट्रवादी भावना अब वैसी नहीं है जिसके साथ मैं बड़ा हुआ था। फ़िल्म निर्माताओं और अभिनेताओं द्वारा अच्छी देशभक्ति की फ़िल्में बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है और मुझे कोई अधिकार नहीं है कि मैं उन्हें हतोत्साहित करूं। लेकिन यह केवल भूमिका की स्थिति को महसूस करने के लिए पर्याप्त नहीं है। भारत सिर्फ एक चरित्र नहीं है जिसे आप अपनी इच्छा के अनुसार मान ले, आपको इसे जीना होगा इसे अपनी सांसे बनानी होगी और इसे अपने अंदर उतारना होगा।

फिल्म उपकार में मनोज कुमार/ भारत सिर्फ एक चरित्र नहीं है जिसे आप अपनी इच्छा के अनुसार मान ले, आपको इसे जीना होगा इसे अपनी सांसे बनानी होगी और इसे अपने अंदर उतारना होगा ।

   मनोज कुमार का चिंतन

भारत के 73वें स्वतंत्रता दिवस के वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर, 83 वर्षीय मनोज कुमार उन क्षणों को याद करने में व्यतीत करते हैं जब भारत क्या था और अब क्या है। वो आज भी देश के राजनीतिक और सामाजिक वातावरण के लिए उत्सुक हैं, लेकिन उनकी सोच बीते समय के बुद्धिमानी के साथ चिढ़े हुए व्यक्ति की है, जहां सबकुछ अलग था। उनके विचार से कुछ उद्धरण नीचे दिए गए हैं …….

  • गहरी देशभक्ति सतह पर नहीं आती है, यह आपकी त्वचा के नीचे सन्निहित है। आपको इसे महसूस करने के लिए जीना होगा। आप जो भी साँस लेते हैं, आपको साँस छोड़ना पड़ता है, जैसे मैंने किया।
  • मेरी पार्टी मेरा देश है।
  • आजादी के लिए लड़ना आसान है, लेकिन इसे सुरक्षित रखने और सींचने के लिए अपने जीवन में इसको घोलना, ये जीवन भर का संघर्ष है। जैसे एक माँ अपने बच्चे के साथ व्यवहार करती है, वैसे ही हमें अपने देश के साथ व्यवहार करना और संवारना है।
  • हम परिवर्तन के लिए सरकार की तरफ देखते रहते हैं और संकटों में सरकार को दोषी ठहराते हैं लेकिन सरकार तब तक बदलाव को प्रभावित नहीं कर सकती जब तक कि हम खुद को बदलने और सुधारने के लिए तैयार नहीं हैं। हमें इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि क्या किया जाना चाहिए। हर कोई व्यक्तिगत सुरक्षा की खोज में लगा हुआ है। लेकिन जब तक आप आपने देश को सुरक्षित नहीं करेंगे, हम कैसे आगे बढ़ सकते हैं?
  • जब मैं छोटा था, तो सब कुछ और हर कोई अच्छाई से प्रभावित थालोग, शिक्षक, नेता, माता-पिता, और समाजहर कोई अच्छाई की आकांक्षा करता था और यह समग्र माहौल था जिसने मेरी भावना को परिपूर्ण किया। आज मानवीय गुण और मूल्य नीलाम हो चुके है। यह देख कर बहुत दुःख होता है कि नैतिकता और अखण्डता इस हद तक मिट गई है कि हर चीज़ में बहुत मिलावट है।
  • किसी देश की किस्मत की रचना सैनिकों द्वारा की जाती है, ना कि राजनेताओं द्वारा
  • सेना को आवश्यकता नहीं है लोगों को कुछ सिद्ध करने की
  • दुनिया तलवार की धार पर चल रही है आज।
  • इसमें कोई संदेह नहीं है कि नागरिकों के रूप में हमें हर चीज़ पर सवाल करने का अधिकार है। लेकिन हमारी सरकार को बेहतर और प्रभावी ढंग से काम करने के लिए, हमें एक बहुत मजबूत विपक्षी पार्टी की आवश्यकता है।

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