जम्मू–कश्मीर के पुरातन राजनीति पर, राज्य की उथल–पुथल में स्वर्गीय राजनीतिक संवाददाता, सती साहनी ने अपना बहुमूल्य अंतर्दृष्टि बताया है
कश्मीर छोड़ों आंदोलन: 1931-1947
जम्मू और कश्मीर में सांस्कृतिक और धार्मिक विभाजन की उत्पत्ति का पता,1846 में हुई “अमृतसर की संधि”, से लगाया जा सकता है। यह संधि वर्तमान राज्य की नियति को आकार देने में एक बहुत महत्वपूर्ण मील का पत्थर था।
प्रथम एंग्लो-सिख युद्ध के बाद, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और हिंदू (डोगरा) शासक राजा गुलाब सिंह के बीच हुई संधि ने, अंग्रेजों की अधीनता में जम्मू और कश्मीर की रियासत की स्थापना की। संधि घोषित की गई, “ब्रिटिश सरकार ने अपने स्वतन्त्र अधिकार में हमेशा के लिए, महाराजा गुलाब सिंह और उनके आने वाले पुरुष उत्तराधिकारी के लिए कश्मीर घाटी और उत्तर तक गिलगिट का क्षेत्र स्थानांतरित कर दिया”। इस नई “रियासत” में ऐसे क्षेत्र शामिल थे जो एक समय में स्वतंत्र रियासतें थीं: जम्मू, कश्मीर, लद्दाख, मीरपुर, पुंछ, बाल्टिस्तान, गिलगिट, हुनजा, मुजफ्फराबाद, नगर और कुछ अन्य राज्य जिनका उल्लेख नहीं था।
इस संधि में आगे कहा गया है कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी राज अपने क्षेत्र को विघटनकारी ताकतों से बचाने में, कश्मीर के सम्राट को सहायता प्रदान करेगा। उसने अंग्रेज़ी सरकार के प्रति सम्राट की निष्ठा का भी उल्लेख किया और कहा कि संधि के उस लेख की एक पावती के रूप में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की प्रधानता के रूप में सम्राट को, प्रतिवर्ष एक घोड़ा, बारह शॉल बकरियां, और तीन जोड़े बुना हुआ कश्मीरी शॉल ईस्टर्न इंडिया कंपनी को पेश करेगा। इस धारा को लागू करने से डोगरा नरेश पर औपनिवेशिक प्राधिकरण ने एक संबंध बनाया, जो राजनीति और धार्मिक गतिविधियों को वर्तमान समय तक प्रभावित करता।
ब्रिटिश चाल
1925 में, अंग्रेजों की पहली बड़ी चालबाजी तब सामने आई जब उन्होंने महाराजा हरि सिंह को शासक के रूप में स्थापित किया(महाराजा प्रताप सिंह का कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं था और उनकी उत्तराधिकारी के रूप में एक दूर के रिश्तेदार की घोषणा करने में रुचि थी)।
उस समय तक राज्य में एक राष्ट्रवादी और सामंतवाद विरोधी आंदोलन चल रहा था और महाराजा हरि सिंह ने इसे अपनी ताकत से कुचल दिया। वास्तव में आंदोलन, मुसलमानों की कठिन और दयनीय स्थिति के कारण शुरू हुआ। जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में बहुत कम या कोई प्रतिनिधित्व नहीं होने के कारण उन्हें बहुत असुविधा हुई। यहां तक कि 13 बटालियन के राज्य बलों में, केवल एक में मुस्लिम शामिल था। उन्हें हथियार और तेज उपकरण रखने पर सख्त प्रतिबंध था, इतना कि उन्हें खाने के लिए जानवरों को मारने की अनुमति मिलना मुश्किल था। सम्राट और कश्मीरी किसानों ने, मजदूरों के रूप में काम करने के लिए, कुछ चुनिंदा लोगों को ही भूमि दी। कश्मीरी मुसलमानों को शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार से वंचित, सिविल सेवाओं से बेदखल, और बिना सरकारी अनुमति के राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने से रोका गया। इससे बहुत ज्यादा नाराजगी पैदा हुई और हवाओं के परिवर्तन के साथ जो पूरे भारत में बह रहा था, क्या कश्मीर पीछे रह जाता?
1939 में, ऑल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस (ए.आई.एस.पी.सी) ने मामला अपने हाथ ले लिया और एक न्यायसंगत और जिम्मेदार सरकार बनाने के लिए सम्राट के प्रतिनिधित्व के साथ कश्मीरियों की दुर्दशा में मदद करने के लिए एक आंदोलन शुरू किया। एक बार जब ए.आई.एस.पी.सी ने इसे अपने हाथ ले लिया और संकल्प को अपनाया, तो जम्मू के पंडितों और डोगरों के नेतृत्व में एक हिंदू पुनरुत्थानवादी पार्टी- डोगरा सभा का गठन किया गया और एक अन्य आंदोलन, अंजुमन-ए-नुसरत-उल-इस्लाम का नेतृत्व कश्मीर के मीरवाइज ने किया। दोनों आंदोलन, राज्य के रहने वालों, सामाजिक और शैक्षिक सुधारों के लिए उत्सुक थे। हालाँकि, यह अल्पकालिक था क्योंकि सरकार ने सभी मुस्लिम संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया था। महाराजा के स्वामित्व वाले श्रीनगर के कश्मीर सिल्क मिल में श्रमिकों की भारी कमी होने पर मामला सामने आया।
इसने उन भयानक स्थितियों का खुलासा किया जो कि कार्यबल को सहना पड़ा; मिल के अधिकांश मुस्लिम मजदूरों को उनकी आय से कम पैसा दिया जाता था, उनसे ज्यादा काम लेते थे और उनके साथ बुरा व्यवहार करते थे। 1924 में, प्रख्यात मुसलमानों के एक प्रतिनिधिमंडल ने गवर्नर जनरल, लॉर्ड रीडिंग को, घृणित स्थितियों और शोषणकारी प्रथाओं के बारे में एक पत्र सौंपकर विरोध किया। युवा और शिक्षित मुसलमानों ने एक पठन समाज का गठन किया- जिसे “फतेह कदल रीडिंग पार्टी” के रूप में जाना जाता था और उन्होंने विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशनों और लेखों के माध्यम से होने वाले अन्याय पर प्रकाश डाला। इस रीडिंग रूम पार्टी का एक बहुत ही प्रमुख व्यक्ति शेख मोहम्मद अब्दुल्ला था, जिनकी विरोधी-स्थापना वाला रुख और सम्राट के सामान्य विरोध ने उन्हें लोकप्रिय और सम्मानित व्यक्ति बना दिया। उन्होंने जल्द ही, अखिल भारतीय कश्मीर समिति को अपने नेतृत्व में संगठित किया तथा एक जम्मू और एक श्रीनगर प्रतिनिधि का गठन किया। विशेष रूप से, इस समिति को निम्नलिखित कार्य सौंपे गए।
1) राजनीतिक आंदोलनकारियों को वित्तीय सहायता देना;
2) अतिक्रमित राजनीतिक नेताओं, शहीदों के आश्रितों, और पुलिस के साथ टकराव में घायल लोगों को वित्तीय सहायता प्रदान करना;
3) घायलों के लिए चिकित्सा की व्यवस्था करना;
4) राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए कानूनी सुरक्षा की व्यवस्था करना;
5) मिडलटन और ग्लेंसी कमीशन के समक्ष मामलों की तैयारी के लिए कानूनी सहायता प्रदान करना।
नौकरियों को लेकर संघर्ष
इसके बाद ग्लेंसी कमीशन ने वकालत की कि कश्मीर में अधिक धार्मिक स्वतंत्रता होनी चाहिए और इस बात पर जोर दिया कि सरकार, पूजा स्थलों पर अपने अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकती। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षा सभी के लिए खुली होनी चाहिए और अधिक से अधिक स्कूल खोले जाने चाहिए। अधिक मुस्लिम शिक्षकों को नियुक्त करने की आवश्यकता है और मुसलमानों के लिए शैक्षणिक संस्थानों के प्रशासन के लिए एक विशेष कार्यालय स्थापित किया जाना चाहिए।
इन सबसे ऊपर उन्होंने सिफारिश की कि नौकरियों को समाज के सभी सदस्यों के लिए खुला होना चाहिए। जाहिर है कि डोगरा दरबार में यह सब पसंद नहीं किया गया था और कश्मीर के मीरवाइज (मुसलमानों के दशमांश प्रमुख) और युवा शेख अब्दुल्ला, जो पीड़ित मुस्लिम समाज के नेता के रूप में देखे जा रहे थे, के बीच संघर्ष शुरू हो गया। शेख अब्दुल्ला ने जल्द ही मुस्लिम सम्मेलन का गठन किया, लेकिन वो कुछ नहीं कर सकते थे जब तक कि उन्हें किसी भी प्रकार की शक्ति नहीं मिलती।
सविनय अवज्ञा
दुर्भाग्य से, महाराजा लोकतांत्रिक शासन के किसी भी रूप को स्थापित नहीं करना चाहते थे और 1933-34 में सविनय अवज्ञा ने घाटी में पहले लोकतांत्रिक चुनाव का नेतृत्व किया। अगले कुछ वर्षों में, मुस्लिम सम्मेलन की राजनीतिक विचारधारा ने क्षेत्रीय पहचान को गौरवांवित किया। अब्दुल्ला पार्टी की विचारधारा के लिए, प्रतिबद्ध युवा समान विचारधारा वाले लोगों का एक कुशल संगठन बनाने में सक्षम थे, जिसकी अवधारणा मुस्लिम पहचान को चित्रित करना था। पार्टी ने सामाजिक और राजनीतिक उत्थान का वादा किया। पहले चुनाव में, उन्होंने राज्य विधानसभा में, मुस्लिम मतदाताओं को आवंटित, 21 में से 14 सीटें जीतीं। सरकार की इस शाखा में केवल परामर्शी और गैर-विधायी शक्तियाँ थीं।
अगले कुछ वर्षों में, शेख अब्दुल्ला ने समाज में एक धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने की कोशिश की और एक आंदोलन की शुरूआत की। 1938 में, मुस्लिम सम्मेलन को एक अधिक धर्मनिरपेक्ष संगठन के साथ बदल दिया गया– ऑल जम्मू एंड कश्मीर नैशनल कांग्रेस, जिसका नेतृत्व पुनः शेख अब्दुल्ला कर रहे थे। जिसकी सोच, राष्ट्रीय स्तर पर इंडियन नैशनल कांग्रेस के साथ गठबंधन करने की थी, ताकि वो मुख्यधारा की पार्टी बन जाए। केंद्र के वामपंथी होने कारण समाजवादी ने इसे डोगरा दरबार के विरुद्ध पेश किया और इसे एक अलग कश्मीरी पहचान बनाने में मदद की। इस समयबद्ध कदम ने हिंदुओं और मुसलमानों को एक साथ लाया और इस नए-नए विश्वास और समर्थन के साथ, अब्दुल्ला शेख और उनके राजनीतिक संगठन ने मांग की कि अमृतसर की संधि को रद्द कर दिया जाए एवं राजशाही शासन को हटा दिया जाए। इस प्रकार स्वतंत्रता के लिए बड़े भारतीय संघर्ष से जुड़कर, कश्मीर छोड़ो आंदोलन का गठन किया गया था। दुर्भाग्य से, इसने नेतृत्व की अपेक्षाओं पर काम नहीं किया क्योंकि राज्य के हिन्दू और सिख, जो राज्य के बड़े लाभार्थी थे उन्होंने इनका साथ छोड़ दिया और इस आंदोलन का बहिष्कार किया।
देश द्रोह का आरोप
मई 1946, में महाराजा के शासन के खिलाफ, कश्मीर छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए राजद्रोह के आरोप में, शेख को नौ साल कारावास की सजा सुनाई गई थी। शेख अब्दुल्ला का मुकदमा बादामी बाग छावनी में शुरू हुआ। पं. नेहरू ने शेख के मुकदमा के लिए एक समिति का गठन किया, जिसके प्रमुख वे स्वयं थे। समिति में भूलाभाई देसाई और असफ अली जैसे प्रसिद्ध लोग शामिल थे। जबकि पं. नेहरू कश्मीर जा रहे थे तो उन्हें रास्ते में ही गिरफ्तार कर लिया और फिर वापस भेज दिया गया। अपने मुकदमा के दौरान, शेख अब्दुल्ला ने इस आंदोलन के लिए अपना कारण दिया और कहा था:
जहां कानून, लोगों की इच्छा पर आधारित नहीं है, यह उनकी आकांक्षाओं का दमन कर सकता है। ऐसे कानून की कोई नैतिक वैधता नहीं है, भले ही इसे थोड़ी देर के लिए लागू किया जा सकता है। इससे भी बड़ा एक कानून है, वह कानून जो लोगों की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करता है और उनकी भलाई को सुरक्षित करता है; और मानव विवेक की श्रद्धांजलि है, जो शासक और शासित एक जैसे मानकों का न्याय करता है जो सबसे शक्तिशाली की मनमानी इच्छा से नहीं बदलते हैं। इस कानून के लिए, मैं ख़ुशी–ख़ुशी प्रस्तुत हूँ और इस विश्वास के साथ बिना किसी भय के सामना करूँगा, यह दावा करने के लिए कि मैं और मेरे सहयोगियों ने न केवल जम्मू और कश्मीर के चालीस लाख लोगों की ओर से बल्कि भारत के सभी राज्यों, जिसमें 9 करोड़ 30 लाख लोग रहते हैं, उनकी ओर से अपने फैसलें को घोषित करने के लिए इतिहास और आने वाली पीढ़ियों पर छोड़ दिया है। यह दावा किसी विशेष जाति या धर्म या रंग तक ही सीमित नहीं है……मैं मानता हूं कि संप्रभुता लोगों में रहती है, सभी रिश्ते राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक लोगों की सामूहिक इच्छा से प्राप्त होते हैं।
यह, अब्दुल्ला के लिए दुर्भाग्यपूर्ण था कि कांग्रेस के अत्याधिक समर्थन के उपरांत भी,आंदोलन को राजनीतिक और सैन्य रूप से कुचल दिया गया था। यह बताया जाता है कि 1946 में शेख अब्दुल्ला ने एक टेलीग्राम भेजा था जिसमें ब्रिटिश मंत्रिमंडल को जम्मू-कश्मीर के जमीनी हालात के बारे में बताया कि कैसे अमृतसर समझौते ने वहां के जन-जीवन को बर्बाद कर दिया था। एक गंभीर रूप से खंडित कश्मीरी नैशनल कांग्रेस, महाराजा की गंभीर विभाजनकारी नीतियों की दया पर थी और राज्य की धार्मिक जातियता को और विभाजित करना चाहती थी। उन्होंने दो लिपियां देवनागरी और फारसी को पेश किया- जो आगे चलकर एक कील की तरह चुभने लगीं। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच कभी ना भरने वाली दरार पैदा हो गई- जाहिर है कि यह एक अदूरदर्शी नीति थी।
धार्मिक विभाजन
राष्ट्रीय परिदृश्य पर, मोहम्मद अली जिन्ना, मुस्लिम लीग को समर्थन देने के लिए अब्दुल्ला के साथ जोर दे रहे थे। मुस्लिम लीग वह संगठन था जो पाकिस्तान के निर्माण में सबसे आगे था। शेख अब्दुल्ला एक धार्मिक विभाजन के विरोधी थे क्योंकि यह उनके सिद्धांतों के विरुद्ध था। भारतीय नैशनल कांग्रेस, जिसने कश्मीर छोड़ो आंदोलन का समर्थन किया था, ने दो देशों के निर्माण पर शेख के समर्थन का आह्वान किया। कांग्रेस ने राज्य के भविष्य पर कोई भी फैसला करने से पहले 1947 तक के जनता के मनोदशा का निरीक्षण करने की महाराजा को सलाह दी। विभाजन की पूर्व संध्या पर महाराजा सत्ता संभालने की कोशिश में व्यस्त थे क्योंकि राज्य बहुत खंडित हो चुका था। जवाहरलाल नेहरू धर्मनिरपेक्ष प्रमाणिकता को मान्य करने के लिए भारत में कश्मीर को बनाए रखने के बारे में मुखर थे, जिन्ना ने 25 जुलाई,1947 से पहले कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने की बात नहीं कही थी।
महाराजा हरि सिंह दुविधा में थे और कुछ लोग कहते हैं कि वे दोनों में से किसी भी देश का अंग नहीं बनना चाहते थे, क्योंकि वे स्वतंत्र रहने के इच्छुक थे। आश्चर्य कि बात है कि वह कैसे इस धारणा को बनाए रखते, विशेष रूप से तब, जब उसका राजनीतिक और सैन्य बल बहुत सीमित था। ऐसा लगता है कि महाराजा ने लगभग किसी के भी शासनाधिकार को स्वीकार न करने का मन बना लिया था। इसके कुछ कारण थे। पहला, यह मुस्लिम लीग का कथन था कि परिग्रहण के मुद्दे को तय करने का अंतिम अधिकार शासक का होता है। दूसरा, उन्हें डर था कि अगर उन्होंने भारत की मांग मान लिया तो मुस्लिम बहुसंख्यक राज्य, स्वेच्छा से उनका समर्थन नहीं करेगा। अंतिम, वह स्पष्ट कारणों के लिए पाकिस्तान के साथ समझौता नहीं करना चाहता था।
उन पर काम करने वाले दो अन्य प्रमुख प्रभाव थे- उनके प्रधानमंत्री आर.सी. काक, जिन्होंने कथित तौर पर दो शासित क्षेत्र बनाए जाने तक उन्हें निर्णय लेने में देरी करने की सलाह दी और दूसरा प्रभाव महारानी तारा देवी का था। भारत सरकार ने इस रुख का विरोध किया जबकि पाकिस्तानियों ने इसका समर्थन किया क्योंकि उनके नापाक मंसूबे थे। लॉर्ड माउंटबेटन ने जून, 1947 में कश्मीर का दौरा भी किया था ताकि दोनों देशों में से एक के साथ गठबंधन करने के फैसले के बारे में महाराजा से बात की जा सके लेकिन महाराजा ने उनसे मिलने से इनकार कर दिया। इतिहास उन घटनाओं का गवाह है, जो विश्वासघाती पाकिस्तान, कश्मीर को अपने कब्ज़े में लेना चाहता था और अंततः 26 अक्टूबर, 1947 को भारत की प्रभुता स्वीकार करने के अलावा महाराजा के पास कोई विकल्प नहीं बचा था।
रिंगसाइड सीट
उस समय कश्मीर का एक छात्र होने के नाते, मैं आंदोलन में शामिल हुआ था। छात्र राजनीति में शामिल होने के अलावा, मैं एक छोटे समूह का हिस्सा भी था, जो कश्मीर छोड़ो आंदोलन के बाद, नया कश्मीर घोषणापत्र जारी करने के लिए बहस कर रहा था। इंडो-सोवियत फ्रेंडशिप सोसाइटी का गठन 1941 के अंत और 1942 के आरंभ में हुआ था। इसकी एक शाखा जम्मू-कश्मीर में भी शुरू हुई थी। यह एक गैर-राजनीतिक निकाय था। मैं, 18 महीने तक इसका महासचिव था। इसका काम, राजसी युद्ध बनाम आम जनता के युद्ध के मुद्दे पर लोगों में, जन-जागरण का आभास जगाना था। इस बीच ब्रिटिश साम्राज्य के चर्चिल वॉर काउंसिल ने महाराजा हरि सिंह को अपने एक सदस्य के रूप में शामिल किया। मेरे लिए स्थिति समस्याग्रस्त थी। मैं एनसी, एआईएसएफ और इंडो-सोवियत फ्रेंडशिप सोसाइटी के साथ जुड़ने के कारण युद्ध-विरोधी प्रयास में शामिल था। दूसरी ओर, मेरे पिता एक दरबारी थे। मेरी मां महारानी के लेडीज क्लब का हिस्सा थीं, जिसका उद्देश्य युद्ध के प्रयासों को बढ़ावा देना था। मैं, शेख साहब, बख्शी मोहम्मद सोमेश्वर, के.एन बामजई, जे.एन जुत्शी, डी.पी धार और श्री सादिक जैसे एन.सी नेताओं के साथ निकटता से जुड़ा था।
1944 में, श्री जिन्ना की कश्मीर यात्रा एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना थी। जिन्ना के कश्मीर की यात्रा करने का मुख्य कारण शेख अब्दुल्ला पर विजय प्राप्त करना था, पर शेख मोहम्मद, जिन्ना के जाल में नहीं फंसे। शेख साहब ने जिन्ना से स्पष्ट कहा कि वह किसी भी कीमत पर अपनी पार्टी को मुस्लिम लीग के साथ नहीं जाने देंगे। मुझे, श्री जिन्ना से मिलने और भारतीय और राज्य की राजनीति पर अपने विचार रखने का दुर्लभ मौका मिला। मैंने देखा कि वह सिर्फ शेख अब्दुल्ला से ही नहीं बल्कि उस प्रतिक्रिया से भी काफी निराश थे जो कश्मीर में, समाज के सभी क्षेत्रों से मिली।
राष्ट्रीय सम्मेलन के भीतर “महाराजा समर्थक” और “महाराजा विरोधी” पन्क्तियों के साथ ध्रुवीकरण हुआ था। जिन्ना की असफल यात्रा ने इस ध्रुवीकरण में ईंधन का काम किया। जम्मू प्रांत में एन.सी. के एक सत्र में यह निर्णय लिया गया कि “हम अपने धैर्य की सीमा तक पहुंच गए हैं और महाराजा के खिलाफ आंदोलन शुरू करने की जरूरत है”। एन.सी. के नेतृत्व ने भारत छोड़ो आंदोलन को भी ध्यान में रखा था, जिसने कांग्रेस को बड़े लाभांश दिए थे। इसलिए उन्होंने सोचा कि वे कश्मीर छोड़ो आंदोलन की शुरुआत करके इसे कश्मीर में दोहरा सकते हैं। वे भूल गए कि भारत छोड़ो आंदोलन में लोगों ने बड़ा बलिदान दिया था। कश्मीर में, ऐसे लोग कम थे। बहुत से लोग व्यक्तिगत संपत्ति और लाभ के लिए आंदोलन करना चाहते थे। यह कश्मीर छोड़ो आंदोलन की विफलता का मुख्य कारण था।