Saturday, November 16, 2024
spot_img

सर्वोत्कृष्ट गुरु

महान शास्त्रीय गायिका किशोरी अमोनकर  के पहले शिष्य, डॉ अरुण द्रविड़, शिक्षक और छात्र के सुन्दर संबंध को दर्शाते हैं।

मुझे महान पद्मभूषण दिवंगत गानसरस्वती किशोरी अमोनकर (जिन्हें बाद में, मैं किशोरी ताई या ताई के रूप में संबोधित करूंगा) के पहले शिष्य होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। किशोरी ताई ने 86 वर्ष के अपने शानदार जीवन के दौरान हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के जयपुर-अतरौली घराने की एक प्रमुख मर्मज्ञ गायिका के रूप में एक कुशल जीवन व्यतीत किया। इस प्रकार,मेरे स्मरण से, एक समर्पित शिष्य, मित्र और दार्शनिक की भूमिका, मैंने उनके जीवन में लगभग 50 वर्षों तक निभाई थी। किशोरी ताई मुझसे केवल बारह वर्ष बड़ी थीं और इसलिए ये तीनों भूमिकाएं हमारे जीवन की लंबी यात्रा में आसानी से मिल जाती है। हालांकि,मेरी सबसे प्रमुख भूमिका उनके शिष्य के रूप में रही जिसके बारे में मुख्य रूप से वर्णन करूंगा।

                  किशोरी ताई के शिष्य के रूप में मेरी दीक्षा कुछ आकस्मिक रूप से शुरू हुई। जब मैं मुश्किल से बारह साल का था, तो जब मैंने उनकी माँ और गुरु, स्वर्गीय पद्मभूषण गानतपस्विनी मोगुबाई कुरदीकर (जिन्हें मैं माई कहता था,जैसा कि हम सभी उन्हें पुकारते थे) को देखना चाहता था कि एक महान व्यक्ति कैसा दिखता है और उन्हें सम्मान देना चाहता था। मैं उस समय उस्ताद अब्दुल मजीद खान साहब के अधीन प्रशिक्षण ले रहा था, जब हम उनके घर पहुंचे तो  माई ने मुझे गाना गाने को कहा, जैसे कि वो मुझे जानती थी कि मैं कौन हूं। कई साल बाद, जब मैं सत्रह साल का हुआ, तो मैंने माई को पूछा कि क्या वो मुझे अपना शिष्य बनाएंगी?  उन्होंने बड़ी नम्रता से मना कर दिया, लेकिन वो मेरे स्वर संगीत की तैयारियों से अवगत थी और उन्होंने मेरे गुरु के रूप में अपनी पुत्री किशोरी ताई का नाम सुझाया, जो उस समय इतनी प्रसिद्ध नहीं थी। मैंने सहजता से स्वीकार कर लिया और इस तरह, से अगले पांच दशकों के लिए एक जगमगाता रिश्ता कायम हुआ।

                         मेरे प्रशिक्षण का पहला वर्ष राग भैरव से शुरू हुआ। मैं  महाविद्यालय का पहला वर्ष समाप्त कर चुका था और मेरा विषय विज्ञान था। उस समय के दौरान संगीत व्यवहारिक रूप से मेरा दूसरा,   समान रूप से समय लेने वाली गतिविधी बन गई। अध्ययन नियमित थे, सप्ताह में लगभग तीन से चार बार। शुल्क के रूप में ताई ने मुझसे पचास रुपये प्रतिमाह लेना आरंभ किया, परंतु कुछ महीने बाद ही उन्होंने शुल्क लेना बंद कर दिया। उनका तर्क यह था कि मुझे सिखाते समय जिन चुनौतियों का वो सामना करती हैं उन चुनौतियों को वो स्वयं पसंद करती हैं और वो मुझसे एक कदम आगे रहना चाहती हैं एवं अपने संगीत को और भी समृद्ध करना चाहती हैं। 

तब से उन्होंने मुझसे आजतक एक पैसा नहीं लियाइसके बावजूद भी, मेरे ऊपर संगीत के धन की वर्षा करती रहीं।  

             1962 में, मैं विश्वविधालय में प्रथम स्थान पर रहा और बी.टेक. में केमिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए मैंने पवई स्थित आई.आई.टी. मुंबई में शामिल होने का निर्णय लियाचूंकि, परिसर आवासीय था और नियम ऐसे थे कि आप सप्ताहांत में घर नहीं जा सकते थे और इसका अर्थ था, मेरे संगीत प्रशिक्षण का अंतलेकिन ताई ने मुझे एक सख्त चेतावनी दी: या तो तुम हर सप्ताहांत में संगीत शिक्षा के लिए आओ या अपने प्रशिक्षण को समाप्त कर दो। मुझे हर सप्ताह के अंत में मुंबई जाने के लिए आई.आई.टी. बॉम्बे के निर्देशक से विशेष अनुमति लेनी पड़ी क्योंकि इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था। उन्होंने इस शर्त के साथ अनुमति दी कि यदि कक्षा में मैं अपना पहला स्थान नहीं ले पाता हूं तो अनुमति वापस ले ली जाएगी। ईश्वर की कृपा से, मैंने अपनी पढ़ाई पर अच्छी तरह से ध्यान दिया। सप्ताहांत और छुट्टियों का पूर्ण रूप से संगीत के अध्ययन के लिए उपयोग  किया। मैंने, न केवल अपना पहला स्थान बनाए रखा बल्कि भारत के राष्ट्रपति से बी.टेक. के अंतिम वर्ष में स्वर्ण पदक  मिलने का सम्मान प्राप्त हुआ, क्योंकि मैं इंजीनियरिंग की सभी शाखाओं में प्रथम आया था। कहने की आवश्यकता नहीं है कि किशोरी ताई मेरी उपलब्धियों से कितनी खुश थीं यहां तक की वो मेरे दीक्षांत समारोह में भी शामिल हुई। 

कठिन दिनचर्या 

               मैं प्रत्येक सप्ताहांत में संगीत सबक दिनचर्या लिखने के लिए उत्सुक रहता था। शुक्रवार के दोपहर के प्रैक्टिकल के बाद मैं विक्रोली   स्टेशन के लिए अपने विद्यालय परिसर से बस लेता था और फिर ट्रेन के लंबे सफ़र के बाद, मैं ताई के घर शाम को पहुंचता था, जो गोवालिया  टैंक में था। तब मेरे संगीत अध्ययन के पांच सत्र होते थे- एक शुक्रवार की शाम को और दोदो शनिवार और रविवार की सुबह और शाम में होते थे। फिर मैं रविवार की देर शाम को पवई के लिए रवाना होता था। विक्रोली स्टेशन से दो मील पहाड़ी चढ़ाई के बाद, मैं अपने हास्टल पहुंचता था। कभी-कभी तो रात के ग्यारह बज जाते थे, क्योंकि उस समय तक बस सेवा समाप्त हो चुकी होती थी। अक्सर मेरा रात्रि भोजन छुट जाया करता था, तो मैं बिस्किट और पानी पीकर पेट भर लेता था और फिर सोमवार की सुबह मेरी कक्षा शुरू हो जाती थी। इस किस्से को बताने का कारण यह है कि मेरे अन्दर एक जुनून था, किशोरी ताई के कड़े और कठिन मांगो को संतुष्ट करने की और  प्रामाणिक जयपुर घराना रागों को, जितनी शीघ्रता से सम्भव हो सके सीखने का था। बेशक, दिवाली और गर्मियों की छुट्टियों के दौरान मेरा प्रशिक्षण प्रतिदिन सुबह और शाम हुआ करता था।  इस प्रकार मेरे पास संगीत और शैक्षणिक अध्ययन के अलावा लगभग कोई जीवन नहीं बचा था। इस दृष्टि से, मैं स्वयं को बहुत धन्य महसूस करता हूं कि मैं किशोरी ताई के, बड़ी संख्या में सिखाये गए जयपुर घराना के जटिल रागों को आत्मसात करने में सफल रहा। 

                    जब पढ़ाने की बात आती है तो किशोरी ताई  एक पूर्णातावादी थी। अधिकांशतः, वो मुझे अकेले ही पढ़ाती थीं, लेकिन कभी-कभी मेरा अध्ययन श्रीमति माणिक भिड़े (विदुषी अश्विनी भिड़े देशपांडे की माँ) के साथ होता था।  वो सामान्य रूप से अंतरण को मेरे और स्वयं के बीच बदलती रहती थी। जब मैं गाने के किसी वाक्यांश का सही उच्चारण नहीं कर पाता था तो वो मुझे कई बार दोहराने को कहती, जब तक वो संतुष्ट न हो जाए। वो इतनी धैर्यवान नहीं थी जितनी उनकी माँ (ताई की माँ जो कभी-कभी मुझे पढ़ाया करती थी जब ताई मुंबई से बाहर होती थी या वो कभी मुझे पढ़ाने नहीं आ पाती थी)। अगर मैं शीघ्रता से किसी वाक्यांश को नहीं गा पाता तो, वह क्रोधित हो जाती थीं। इसलिए हमेशा ये दबाव रहता था कि मैं सही चीजें करूँ। किसी भी राग का ‘स्थाई’ और ‘अंतरा’ काफी अच्छे ढंग से सीखना अति आवश्यक होता है। उस समय कोई इलेक्ट्रॉनिक रिकार्डर या स्मार्टफोन नहीं था तो मैं घर जाने वाली बस में उन छंदों का सख़्ती से पाठ किया करता था और यह मेरे साथी यात्रियों की जिज्ञासा का कारण बनता था। 

                    अधिकांश लोग किशोरी ताई को कठिन मांग और कठोर स्वभाव के लिए जानते थेहालांकि, एक शिष्य के रूप में उनके साथ मेरा व्यक्तिगत सम्बन्ध अलग था। उनके व्यक्तित्व में बहुत प्यार, देखभाल और एक नरम पहलू था जो उनकी सख्त और कठिन पढ़ाने की शैली के साथ विदित था। मुझे एक वृतांत याद है,  जो मैं खुशी से आपके साथ बांटना चाहता हूंएक बार मैं आई.आई.टी. परिसर में बीमार पड़ गया और मुझे उच्च ताप था जिस कारण आई.आई.टी. के अस्पताल में भर्ती किया गया जो पवई में ही था। जब मैंने ताई को फोन किया कि मैं सप्ताहांत में अध्ययन के लिए नहीं आ पाऊंगा, तो वो मेरे बारे में इतनी चिंतित हो गई कि अपने घर से टैक्सी लेकर इतनी दूर मेरे अस्पताल आई। मुझे अपनी जिम्मेदारियों पर अस्पताल से छुट्टी दिलवाई और अपने घर ले गई। रास्ते में मुझे ठंडी हवाओं से बचाने के लिए अपने साड़ी के पल्लू से ढककर मेरे लिए एक सुरक्षा कवच बना दिया। यह था उनका प्यार और देखभाल वाला पहलू।

प्रारंभिक वर्ष 

           मेरे संगीत प्रशिक्षण के शुरुआती वर्षो में, किशोरी ताई उतनी प्रसिद्ध नहीं थी, जितनी वो बाद के वर्षों में हुई। यह मेरे लिए लाभकारी था, क्योंकि मेरे पूरे प्रशिक्षण के दौरान उनका अविभाजित ध्यान पूरे समय केवल मेरे ऊपर था। चुकीं, वो अपनी माँ के साथ रहती थी, इसलिए मेरा प्रशिक्षण अप्रत्यक्ष रूप से माई की निगरानी और देखभाल में था। इसलिए मुझे जयपुर घराना रागों की संरचनात्मक सुंदरता का सुंदर मिश्रण प्राप्त हुआ, लेकिन यह भी आंतरिक सुंदरता थी जो ताई के स्वभाव की पहचान थी। यह सुनहरा अवसर ताई के अधिकांश शिष्यों तक नहीं पहुँचा, जो मेरे से 20 वर्ष बाद आए। इस समय तक, ताई ने राग के व्याकरणिक या संरचनात्मक कठोरता पर जोड़ देना बंद कर दिया था और इसे एक भावनात्मक स्पर्श के साथ प्रतिपादित किया। उनकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह थी की वो किसी भी राग का सही रूप में प्रयोग करने के लिए अपना ध्यान श्रुतियों (micro tones) पर केंद्रित करती थीं। श्रुतियों का नोट बनाया करती थीं जिससे राग का निर्माण होता था। उदाहरण के लिए, मारवा की तरह रागों में कोमल रे और टोडी की सभी किस्मों, बीभाष में धा का अतिरिक्त नीचा होना, जो न तो कोमल और न ही शुद्ध है, बल्कि कोमल से शुद्ध धा के लिए तीन चौथाई रास्ता है। इसी तरह, कौशी कनड़  में कोमल गा और कोमल नि का, ताई का इन्हें बेहतर तरीके से प्रयोग करना, उनके  नियंत्रण का एक उदाहरण है। उन्होंने दो समान नोटों को, विभिन्न श्रुतियों में, गाने की महारथ हासिल की थीं। इन दो नोटों की अलग अलग श्रुतियां होती हैं, जो इन बातों पर निर्भर करता है कि एक मल्कौंस घटक को या कौशी कनड़ के दरबारी कनड़ घटक को बतलाता है। इसलिए हम वरिष्ठ शिष्यों को, इन श्रुतियों के अंतरों को अलग करने की महारथ हासिल करना अनिवार्य था, और तब वो अत्याधिक क्रोधित हो जाया करती थीं, जब हम श्रुतियों को गाने में, निरंतरता हासिल नहीं कर पाते थेइस तरह के सत्र हमेशा चुनौतीपूर्ण होते थें और असीम खुशी तब होती थी जब मैं सही श्रुतियां गा कर ताई को संतुष्ट करता था।

               चूंकि, मेरे और ताई की उम्र के बीच का अन्तर सिर्फ बारह साल था, ताई के कठोर प्रशिक्षण के अलावा, हम घंटों रागों की बारीकियों पर चर्चा करते थे। उनकी विशिष्ट श्रुतियां, गाने को सुन्दर बनाती थी। अस्थाई आंतरस, सुर और ताल के बीच का संबंध और विशेष तरीके, जिसमें शब्दों को लय के साथ परस्पर उच्चारण करना पड़ता था, जो वास्तव में माई की विशेषता थी। ताई मेरे साथ इतने खुले विचारों की थी, उन्होंने मुझे ये निर्देश दिया था कि किसी भी अवसर पर प्रदर्शन करते हुए व्याकरणिक त्रुटि करूँ तो मैं उसे नोट कर लूंऔर बाद में, हम उनके घर पर त्रुटियों पर चर्चा करते थे। मुझे याद है कि हम यमन, बहादुरी तोड़ी, बागेश्री, वसंत केदार, श्री इत्यादि रागों पर इस तरह की बातचीत करते थे। यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि अपने दशकों के सक्रिय प्रशिक्षण के दौरान, किशोरी ताई ने अधिक भक्ति संगीत नहीं गाया,परंतु उन्होंने अर्ध शास्त्रीय संगीत गाया, जिसमें ठुमरी और दादरा की किस्में शामिल हैं। इसलिए, मैं उनसे कुछ ठुमरी  सीख पाया, परंतु भजन और अभंग नहीं, क्योंकि उन्होंने 80 के दशक के मध्य और 90 के दशक में भजनों और अभंगों का अधिक नियमित रूप से गाना शुरू किया था।

                मेरे शुरुआती दो दशकों के बाद, मुझे सक्रिय रूप से सीखने का समय कम मिलता था क्योंकि मैं अपना अधिक समय नौकरी पर व्यतीत करता था। हालांकि, भाग्य ने मेरा साथ दिया और मेरा कार्यालय उनके घर से कुछ ही दूरी पर स्थानांतरित हो गया और मैं अपने कार्यालय से अक्सर उनके घर पर जाया करता थाइस समय तक उनके कई छात्र हो गए और मेरी सक्रिय शिक्षा धीमी हो गई। इसके बावजूद, उनके जीवन में मेरी भूमिका, एक मित्र, सलाहकार और  मार्गदर्शक के  रूप में थी और उनके छोटे छोटे पारिवारिक समस्याओं, स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं, सामाजिक समस्याओं जो उन्हें उस समय काफी तनाव देते थे, उसे हल करने की हो गई। 90 के दशक तक माई में बुढ़ापे के लक्षण दिखने शुरू हो गए और ताई का अत्याधिक ध्यान और ऊर्जा, माई के स्वास्थ्य संबंधित विषयों में खर्च होने लगा। मैंने ताई के इन चुनौतियों को अपने साथ साँझा किया और उन्हें अत्याधिक राहत और सांत्वना दी। 

अंतिम श्रद्धांजलि 

            चूंकि, किशोरी ताई ने मुझे संगीत धन के लिए कोई शुल्क नहीं लिया था, जो उन्होंने मुझे चार दशकों तक दिया। मुझे हमेशा इस बात की  बैचेनी रहती थी कि मैं उनके इस कर्ज को कैसे चुका सकता हूँ। बरसों बीत गए, और 3 अप्रैल 2017 को ताई अचानक अपने पार्थिव शरीर को छोड़कर स्वर्गीय निवास को चली गई, अपने पीछे अनगिनत शिष्यों, परिवार के सदस्यों और संगीत प्रेमियों को अनाथ छोड़कर। बहुत सोच विचार के बाद, मैंने अंततः उनकी स्मृति में एक पुरस्कार बनाने का निर्णय किया, जिसे गानसरस्वती पुरस्कार कहा  गया। मैंने मुंबई के दादर माटुंगा सांस्कृतिक केंद्र में एक कोष दान दिया जिसमें वार्षिक पुरस्कार की राशि एक लाख रुपये है और इनके पुरस्कारों को देने में जो शासनिक प्रबंध का व्यय आता है वो भी मैंने उठाया है । यह पुरस्कार वार्षिक है, जिसे 50 वर्ष से कम आयु के एक निपुण हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायक को दिया जाएगा। पुरस्कार के चयन की प्रक्रिया और इसके आवेदन की प्रक्रिया www.gspuraskar.in पर वर्णित है। 

Latest Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

0FansLike
2,116FollowersFollow
8,300SubscribersSubscribe

Latest Articles