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प्रथम व्यक्ति: महान युद्ध के भारतीय सैनिकों पर अंजली सोवनी - Seniors Today
Friday, October 4, 2024
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प्रथम व्यक्ति: महान युद्ध के भारतीय सैनिकों पर अंजली सोवनी

कलाकार अंजली सोवनी, प्रथम विश्वयुद्ध के अनसुने भारतीय नायकों का उत्सव मनाती हैं और उनकी कहानी साँझा करती हैं।

“भगवान के लिए नहीं आना, नहीं आना, नहीं आना …”

 

यह कहानी उन लाखों भारतीय सैनिकों की है, जो महान युद्ध के प्रयासों में शामिल हुए, जिनमें से 74,000 लोग मारे गए। कालोपानी पार करने वाले लोगों में से एक आदमी यह सोच रहा था कि अंततः वह विलायत जा रहा है जो कि, इंग्लैंड है। इंग्लैंड, उसके सपनों की लुभावनी धरती, जहाँ से साहिब आए थे, जहाँ लोग कोट और पतलून पहनते थे और सक्रिय फैशनेबल जीवन व्यतीत करते थे।

ट्रिगर

28 जून, 1914 को आस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य के उत्तराधिकारी, आर्चड्यूक फर्डिनेंड की हत्या कर दी गई थी। दो महीने बाद, ब्रिटेन ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। लेकिन इस युद्ध का प्रभाव, यूरोप के समुद्री तटों से बहुत दूर तक गूंजने वाला था, जिसका असर इसके मिश्रित सैनिकों और संसार के अन्य देशों पर पड़ने वाला था- यह साम्राज्यों का एक युद्ध था।

पेंटिंग अंजली सोवनी द्वारा

साम्राज्य को सैनिकों की आवश्यकता है!

भारत के तत्कालीन वायसराय, लॉर्ड हार्डिंग ने यह घोषणा की कि भारत भी युद्ध में था। यह घोषणा उस समय के किसी भी भारतीय राजनीतिक नेताओं से परामर्श के बिना की गई थी। इसका एक कारण यह था कि अगर वो परामर्श के लिए भारतीय राजनीतिक दलों के पास जाते तो युद्ध समाप्त होने के पश्चात वो निश्चित रूप से भारत की स्वतंत्रता के लिए बेहतर सौदा करते।

यह सैनिक हिंदुस्तान की रक्षा कर रहा है, वह अपने घर और अपने परिवार की रक्षा कर रहा है। परिवार की मदद करने का सबसे अच्छा तरीका सेना में भर्ती होना है

एक बार जब युद्ध का पहिया घूमने लगा तो “मार्शल रेस” के सिद्धांतानुसार, सैनिकों की भर्ती और धन जुटाने का काम शुरू हो गया। अंग्रेजों ने इसे दो श्रेणी में वर्गीकृत किया था। एक वर्ग में आम तौर पर युद्ध के लिए साहसी और गठीले शरीर वाले पुरुषों को रखा गया और दूसरे वर्ग में ऐसे लोग नहीं थे। भर्ती किए गए सैनिक,  पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सीमा और हिमालय की पहाड़ियों से आए थे। इन क्षेत्रों से लगभग 40% युवाओं को भर्ती किया गया था।

प्रारंभिक भर्ती, गौरव की भावना के निर्माण पर केंद्रित थी

युद्ध के आरंभ में, ग्रामीण गांवों में आयोजित, प्रचार वाले पोस्टर और मेलों के माध्यम से युवाओं को सेना में भर्ती के लिए उत्साहित किया जाता था।

भर्ती की गर्जना गीत गूंजी:

“यहाँ आपको जूते मिलते हैं, वहाँ आपको बूटस मिलेंगे!

सूचीबद्ध हो जाओ!

यहां आपको फटे हुए चीथड़े मिलेंगे, वहां आपको सूट मिलेंगे!

सूचीबद्ध हो जाओ!

यहाँ आपको सूखी रोटी मिलती है, वहाँ आपको बिस्किट मिलेगा!

सूचीबद्ध हो जाओ!

यहां आपको संघर्ष करना होगा, वहां आपको सलामी मिलेगी

सूचीबद्ध हो जाओ!”

जहां प्रारंभिक भर्ती, गौरव की भावना के निर्माण पर केंद्रित थी। 1917 तक एक कोटा प्रणाली लगाई गई थी, जहाँ प्रत्येक प्रांत को एक निश्चित संख्या में सैनिक उपलब्ध कराने थे। कभी-कभी आक्रामकता का इस्तेमाल किया गया और इसने कुछ क्षेत्रों में दंगे भी भड़काए।

प्रचार पोस्टर और मेलों के माध्यम से युवाओं को उत्साहित किया गया

पंजाब में, महिलाएं कभी-कभी अपने पुरुषों के पीछे जाती थीं और अनुरोध करतीं थीं कि वे सेना में भर्ती ना हो। औरतें भर्तीकर्ताओं पर पत्थर भी फेंकती थीं और अपने क्रोध को अपने गीतों द्वारा  चिह्नित करती थी:

युद्ध शहरों और बंदरगाहों को नष्ट कर देता है,

यह झोपड़ियों को नष्ट कर देता हैं

मैं आँसू बहाती हूँ, आओ और मुझसे बात करो

सभी पक्षीयां, सभी मुस्कानें गायब हो गईं हैं

और नावें डूब गईं

कब्र हमारे मांस और खून को खा जाती है

युद्ध के अंत तक, यह अनुमान लगाया जाता है कि भारत, “द ज्वेल इन द क्राउन”,  ने दस लाख से अधिक भारतीय लड़ाकू और गैर-लड़ाकू सैनिकों, 1,70,000 जानवरों और £ 121.5 मिलियन (लगभग £ 8.5 बिलियन आज) धन, युद्ध के लिए मुहैया कराया।

कालोपानी के पार

26 सितंबर, 1914 की सुबह, जब सूर्य का उदय  मार्सिले(फ्रांस) में हो रहा था, पहले भारतीय सैनिकों को ले जाने वाली जहाज – लाहौर डिवीजन के बंदरगाह से रवाना हुए। चूंकि, यात्रा के बाद जब जहाज रुकी तब सैनिक समुद्री बीमारी से ग्रसित थे और पीले पड़ चुके थे।

मार्सिले!’

‘हम  पहुँच चुके हैं मार्सिले  !’

‘हिप हिप हुर्रे!’

सिपाही डेक पर उत्साह से चिल्ला रहे थे …

                राजा-सम्राट ने भी, उन्हें संदेश भेजा …राजा ने सिंहासन के प्रति, उनकी व्यक्तिगत निष्ठा के लिए धन्यवाद  दिया, और उन्हें यह आश्वासन दिया कि संघर्ष में सबसे महत्वपूर्ण होने के लिए उनकी एक-स्वर की मांग उनके दिल को छू गई थी

मस्सिया  बिबिकॉफ़, एक रूसी कलाकार, सैनिकों के आगमन का चित्र बनाने के लिए, मार्सिले में मौजूद थी; उसके शब्दों में, कोई भी सैनिक “ऊंचाई में पाँच फीट ग्यारह इंच से कम नहीं थे, उनका  शरीर छरहरा और सुंदर अनुपात में था … यह एक बेसुध करने वाला दृश्य था। कैफ़े में जो लोग शराब पी रहे थे, खड़े हो गए और चिल्लाने लगे Vive L’Angleterre! Vivent Les Hindous! Vivent Les Allies!

प्रथम विश्व युद्ध के एक प्रसिद्ध इतिहासकार, सांतनु दास के अनुसार, “शाही पत्रकारों द्वारा किसी भी सेना का इतनी गर्मजोशी से स्वागत नहीं किया गया था।”

यूरोप में भारतीय सैनिकों का स्वागत (स्रोत: सांतनु दास)

युद्ध में शामिल होना

बेशक, खाइयों में युद्ध की क्रूरता ने जल्द ही गौरव के किसी भी भ्रम को दूर कर दिया, क्योंकि सैनिकों में से किसी एक के द्वारा, अपने घर भेजे गए पत्र में मार्मिक विस्तार कुछ इस तरह था:

   “… भगवान की खातिर, मत आना, मत आना, यूरोप के इस युद्ध में मत आना। जैसे सावन के महीने में बारिश होती है, वैसे ही यहां दिन रात तोप, मशीनगन, राइफल और बमों की बारिश हो रही हैं। जो लोग अब तक बच गए हैं, वो एक बर्तन में कुछ कच्चे अनाज के समान छोड़ दिए गए हैं

एक पीड़ा भरा पत्र, घर  के लिए

भारतीय उपमहाद्वीप के कुल 74,000 सैनिकों को महान युद्ध में मार दिया गया और हजारों की संख्या में क्रूरता से घायल और मानसिक रूप से क्षतिग्रस्त हो गए। लेकिन इस अंधेरे से साहस की कहानियों का उदय हुआ।

2019 में, युद्ध के समाप्ति के 100वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में मैंने जहाँगीर आर्ट गैलरी में एक प्रदर्शनी लगाई, जिसे “मेडल्स एंड बुलेट्स” का नाम दिया गया। प्रदर्शनी, उन ग्यारह भारतीय सैनिकों पर केंद्रित थी, जिन्हें इस विश्व युद्ध में, विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया था, साथ ही उन अनगिनत पत्रों की तस्वीरें, फिल्मों और अंशों के साथ जो युद्ध के वास्तविक अनुभव को साझा करते हुए लिखे गए थे।

इस तरह के विक्टोरिया क्रॉस होल्डर के चार चित्रों को मैंने चित्रित किया, जो उस समय उनके बारे में लिखे गए प्रेस लेखों के साथ थे।

दफादार गोबिंद सिंह वी.सी द हॉर्समैन

दफादार गोबिंद सिंह, पेंटिंग अंजलि सोवनी द्वारा

लंदन गैजट , 11 जनवरी 1918

         गोबिंद सिंह, लांस-दफादार … रेजिमेंट और ब्रिगेड मुख्यालय के बीच संदेश भेजने के लिए तीन बार स्वेच्छा से ड्यूटी करने के लिए, उनके अदम्य साहस और निष्ठापूर्ण सेवा के लिए सबसे प्रतिष्ठित विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया, जो खुले मैदान में डेढ़ मील की दूरी पर ब्रिगेड मुख्यालय के बीच संदेश ले जाने के लिए था, जो दुश्मन के अवलोकन और भारी गोलीबारी के बीच था। वो हर बार अपना संदेश देने में सफल रहे। हालांकि,  हर एक अवसर पर उनके घोड़े को गोली मार दी गई और वह पैदल यात्रा समाप्त करने के लिए बाध्य हो गए। दफादर गोबिंद सिंह, अपने अभिषेक के लिए बकिंघम पैलेस में उपस्थित हुए।

नाइक दरवान सिंह नेगी वी.सी –  अपराजित

नाइक दरवान सिंह नेगी, पेंटिंग अंजलि सोवनी द्वारा

     भारत के राजपत्र से उद्धरण: सेना विभाग, दिल्ली, 15 जनवरी 1915, भारतीय सेना।

                 39वें गढ़वाल राइफल्स के फर्स्ट बटालियन  के  नाइक दारवान सिंह नेगी,  जिन्होंने अपनी सेवा 1909 नंबर पर दी,   इंग्लैंड के महाराज ने उनके साहस से प्रसन्नचित्त होकर उन्हें उनकी विशिष्ट बहादुरी के लिए विक्टोरिया क्रॉस से  सम्मानित किया।  यह सम्मान उन्हें अदम्य साहस के लिए मिला, जो उन्होंने 23-24 नवंबर की रात को फेस्टुबर्ट, फ्रांस में दिखाया, जब रेजिमेंट दुश्मन को खाइयों से बाहर निकालने और उसे वापस अपने कब्जे में लेने में व्यस्त था, और यहां तक कि उनका सिर दो जगह से घायल हो गया था और  हाथ भी ज़ख्मी थे, वो उनमें से पहले सैनिक थे, जिन्होंने हर बार हताहतों की संख्या को बढ़ने नहीं दिया। इसके बावजूद की अत्यंत निकटतम दूरी से भारी मात्रा में गोलियां और बम दागे जा रहे थे

दफादार गोबिंद सिंह, पेंटिंग अंजलि सोवनी द्वारा

इंद्र लाल रॉय – “ लैडी”

2 दिसंबर 1898 – 22 जुलाई 1918

इंद्र लाल रॉय, प्रथम विश्व युद्ध में एकमात्र भारतीय लड़ाकू पायलट थे। ऐसे समय में, जब अंग्रेज भारतीयों को अपना देश चलाने में भी सक्षम नहीं मानते थे, इंद्र लाल रॉय, नस्ल और भेद की बाधाओं  को तोड़कर, रॉयल फ्लाइंग कॉर्प्स- उत्कृष्ट में उत्कृष्ट, के एक अधिकारी और लड़ाकू पायलट बने।

                1918 में 6 जुलाई और 19 जुलाई के बीच, 13 दिनों के भीतर, इंद्र लाल रॉय ने दस हवाई जीत हासिल की; उड़ान समय के 170 घंटे से अधिक समय में उन्होंने पांच विमानों को नष्ट किया और उनके हमले से पांच नियंत्रण से बाहर हो गए और नीचे गिर गए; उन्हें 22 जुलाई 1918 को फ्रांस के पश्चिमी मोर्चे पर मार गिराया गया और जर्मनों द्वारा फ्रांस में पूर्ण सैन्य सम्मान के साथ दफनाया गया था।

रॉय को मरणोपरांत, प्रतिष्ठित फ्लाइंग क्रॉस से सम्मानित किया गया। यह सम्मान पाने वाले वे पहले भारतीय बने। 21 सितंबर, 1918 को लंदन राजपत्र में प्रशस्ति पत्र ने रॉय की एक बहुत ही वीरता और दृढ़ निश्चयी अधिकारी के रूप में प्रशंसा की, जिनके उल्लेखनीय कौशल और साहस ने, एक मौके पर उन्हें दो दुश्मन मशीनों को गोली मारने में सक्षम बनाया”।

इंद्र लाल रॉय, पेंटिंग अंजलि सोवनी द्वारा

राइफलमैन करनबहादुर राणा वी.सी – “द लेवलहेडेड राइफल”

लंदन गैजट , 21 जून 1918

              क्वीन्स एलेक्जेंडर न गोरखा राइफल्स(1950 के बाद 3 गोरखा राइफल्स कहलाने लगा)  के, 2/3  बटालियन के राइफलमैन, नंबर 4146, करनबहादुर राणा, युद्ध के दौरान एक महत्वपूर्ण संसाधन थे, जिन्होंने विपरित परिस्थितियों में और खतरों को मात देकर अपने अदम्य साहस का परिचय दियाराणा को उनके अदम्य साहस के लिए सबसे विशिष्ट विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया। एक हमले के दौरान, वह कुछ अन्य सैनिकों के साथ, दुश्मन की भारी मशीनगन के हमले के बीच एक लुईस मशीनगन के साथ तीव्रता से आगे बढ़े, दुश्मन की मशीनगन को संलग्न करने के लिए, जिसने कई अधिकारियों और अन्य रैंकों के सैनिकों को गंभीर रूप से हताहत किया था, जिसने इन्हें इस कार्रवाई से बाहर करने का प्रयास किया था। लुईस मशीनगन चलाने वाले नंबर वन सैनिक ने  गोलियां चलाना शुरू किया और शीघ्र ही दुश्मन के द्वारा मार गिराए गए। बिना किसी हिचकिचाहट के राइफलमैन करनबहादुर ने मरे हुए सैनिक को बंदूक से दूर किया इसके वाबजूद कि बम फेंके जा रहे थे और दोनों तरफ से भारी मात्रा में गोलियां चल रही थी, उन्होंने गोलियां चलाईं और शत्रु के मशीनगन चालक दल को मार गिरायाफिर, उन्होंने दुश्मनों के  बॉम्बर्श और राइफलमेन के सामने गोलियां बरसाना शुरू किया, और दुश्मन की गोलीबारी को शांत कर दिया। उन्होंने अपने बंदूक से कार्य को जारी रखा और अपनी सूझ बुझ का परिचय देते हुए अपने उस दोष को दूर किया, जिसने पहले दो अवसरों पर उन्हें गन चलाने से बाधित किया था

                 नाइक करनबहादुर राणा को व्यक्तिगत रूप से इंग्लैंड के सम्राट ने विक्टोरिया क्रॉस से नवाजा था।

एक इतिहास जिसे भुला दिया गया, और याद किया गया

राष्ट्रवादी नेता और कवयित्री  सरोजिनी नायडू ने 1915  में अपनी कविता, द गिफ्ट ऑफ इंडिया के छंद दो में लिखा था:

दे लाइ विद पेल ब्रोज एंड ब्रेभ,

ब्रोकन हैंडस

दे आर स्ट्रोन लाइक ब्लोसम मोड डाउन बाई चांस

आन द ब्लड- ब्राउन मेडॉज ऑफ फ़्लैंडर्स एंड फ्रांस”

ऊपर दिए गए छंदो का उद्देश्य यह था कि “एक युद्ध जिसने सभी युद्धों को समाप्त कर दिया”। इतिहास में यह पहली बार था कि दुनिया भर के राष्ट्रों ने, एक दूसरे के विरुद्ध लड़ने के लिए, दुःख व्यक्त किया। कारण था, सदियों से चली आ रही सत्ता पाने के लिए उनकी असहमति।  इन सब में, 4 करोड़ लोग मारे गए या घायल हो गए, और 1 करोड़ 60 लाख जानवरों ने अपनी जान गंवा दी। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद, प्रथम विश्व महामारी – स्पैनिश फ़्लू – दुनिया भर के लोगों में, भारी आंदोलन से फैल गया, जिसने कम से कम 1 करोड़ 20 लाख भारतीयों सहित, अन्य 5 करोड़ लोगों को मार दिया।

अगर भारत युद्ध में शामिल होता, तो ‘बेहतर सौदे‘ की उम्मीद करता – यह सौदा कभी नहीं आया।

1922 में, अभ्रमित रवींद्रनाथ टैगोर  ने लिखा:

“द वेस्ट कम्स टू अस, नॉट विद ईमेजीनेशन एंड सीमपैथी, दैट वुड क्रियेट एंड यूनाइट, बट विद अ शॉक ऑफ पैसन- पैसन फॉर पॉवर एंड वेल्थ- पैसन दैट इज अ मेअर फोर्स, विच हैज इन इट द प्रिन्सिपल ऑफ सेपरेशन, ऑफ कनफ्लिकट”.

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