Thursday, April 25, 2024
spot_img

एक पारसी बावा बता रहा है कि अपने 43 वर्ष के विवाहित जीवन में वह कैसे टिक पाया

आज सुखी संयोग के पाँचवे दशक के मध्य में, केरसी गाँधी अपना रहस्य खोल रहे हैं

अट्ठारह बरस की कोमल आयु में एक मृदु, संयत, और उम्र में मुझसे कुछ बड़ी लड़की ने दुनिया से छीनकर मुझे अपने पल्लू से बाँध लिया. आज, पीछे मुड़कर 20:20 दृष्टि अर्थात पश्चातबुद्धि के सहारे देख पा रहा हूँ कि उसने मुझे जाँचा, परखा, और तभी उम्रभर के लिए  अपना काठ का उल्लू बनाना स्वीकार किया.

काठ का उल्लू बनने की प्रक्रिया को पूरा होने में तकरीबन छह महीनों का समय लगता है, और इस अवधि में ‘शिकार’ उस अवस्था में आ जाता है जब वह दिमाग़ के बजाए किसी अन्य अंग से सोचता है. आप तो जानते ही हैं कि वह अंग किसके इशारों पर नाचता है. 

यह भावी उल्लू बड़े मज़े में था, और स्वाभाविक रूप से पाँच वर्षों तक “वह प्रश्न” पूछना टालता रहा. फिर एक दिन उसके भावी ससुर के सब्र का बाँध टूट गया और उन्होंने (एक असली बावा की तरह) बिना कोई भूमिका बाँधे बेहद गंभीर होकर पूछा कि कब वह उनकी लाड़ली को एक सच्ची दुल्हन बनाएगा. 

मैं आज भी उनके चेहरे के भाव को गंभीरता से क्रोध में परिवर्तित होते देख सकता हूँ, जब उन्हें ख़याल आया कि “कब” के बदले उन्हें “क्या” कहना चाहिए था. 

अपनी आज़ादी खोने के विचार से घबराकर यह भावी काठ-का-उल्लू टालमटोल करने लगा, जब तक उसे कोई ऐसा प्रस्ताव न मिले जिसे वह ठुकरा न सके. नहीं, भावी ससुर ने दहेज का कोई ज़िक्र नहीं किया, पर ऐसा विकल्प दिया कि या तो कुएँ में गिरके मरो या खाई में. इससे पहले कि मैं कह पाता कि “बीसी… क्याँ फसी गयो” मैंने अपने आपको को रावण के सिंहासन जितनी बड़ी शादी की एक ऐसी कुर्सी में बैठा पाया कि मेरे पाँव भी ज़मीन को छू नहीं पा रहे थे. मुझे लगा कि ससुरजी इससे कोई संदेसा देना चाहते हैं, पर असल बात यह थी कि मेरे पिताजी “सब कुछ सस्ते बजेट में” के ऑफर का मोह टाल नहीं पाए थे. 

पाँच वर्षों के असीम आनंद के बिल के भुगतान का समय आ गया था, और कच्चा लाइसेन्स अब पक्का होनेवाला था.

एक बार पत्नी को खुला मैदान मिल गया तो उल्लू बनाने के कार्य ने गति पकड़ ली. सच कहूँ तो शादी के पहले दस साल कहाँ गए कुछ पता ही नहीं चला. मालूम नहीं ये तीन की चिल्लर पार्टी कैसे आ गयी. (वैसे तो जानता हूँ, आप समझ रहे हैं न) कहते हैं सात बरस बाद एक खुजली सी उठती है. ऐसा हो भी तो मैंने खुजलाया नहीं. शायद इसीलिए अगले दशक में कदम रख पाया.

दूसरे दशक में मैं कुछ कुछ होश में आने लगा, और रस्सी से बाँधकर ढोए जाने के खिलाफ़ धीमे स्वर में पुटपुटाने लगा. फौरन यह कहकर चुप करा दिया गया कि बच्चों पर बुरा असर पड़ता है. अब ऐसा तर्क तो कोई मृदु, संयत, और समझदार लड़की ही दे सकती है. यह अलग बात है कि इसमें बड़ी चालाकी भी थी.

इस मंत्र ने अगले दस बरस तक मेरे मुँह पर ताला लगा दिया. मंत्र ने यह भी सुनिश्चित किया मैं इस व्यवस्था से कोई शिकायत न करूँ.

खुल जा सिम सिम

तीसरे दशक में आकर मैं मंत्र के जाल से मुक्त हुआ और अपनी शादी की 25वीं सालगिरह के अवसर पर, श्रीमान जॉनी वॉकर के प्रभाव में आकर, धीर-गंभीर और ऊंचे स्वर में मैंने अपने सभी रिशतेदारों को साफ़ शब्दों में बता दिया कि मैं उनके बारे में क्या सोचता हूँ.

यह तथ्य कि उपर्युक्त अधिकांश रिश्तेदार मुझसे भी ज़्यादा वॉकर साहब के प्रभाव में थे,  मेरे हर आशीष-वचन पर हर्षित हो रहे थे, और अंत में जब मैं टेबल से लुढ़क कर नीचे आ गिरा तो उन्होंने खड़े होकर तालियाँ बजाईं और मेरा सम्मान किया गया, पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया गया. बाक़ी का तीसरा दशक मैंने कलंकित अवस्था में गुज़ार दिया.

काठ का उल्लू नींद से जागा था, उसने बेवकूफ़ी की थी, अपने मालिक को लज्जित किया था. अब उसे संभालने का कोई नया ढंग खोजना था. 

चौथा दशक अपनी बात को ठोककर कहने का था, और इसमें मैंने अपनी राय पेश करने की हिम्मत भी दिखाई. इस बात पर समझौता हो गया कि कुछ बड़े निर्णय मैं लिया करूँ, जैसे कि देश का अगला प्रधानमंत्री कौन बनेगा.

जीतने की रणनीति 

आप कल्पना कर सकते हैं कि मेरी इस घोषणा से क्या हुआ होगा जब मैंने कहा कि घर की शांति के लिए मैं फरेदून जंगलवाला के सिद्धांतों का पालन करूँगा:

1 यदि पत्नी का निर्णय एकदम ग़लत और हानिकारक है तो उसे हटा दिया जाएगा और उसपर आगे कोई चर्चा नहीं होगी.

2  यदि पत्नी का निर्णय थोड़ा-बहुत हानिकारक है तो मैं अपनी आपत्तियाँ नोट कराकर उसे जाने दूंगा.

3 यदि कोई निर्णय केवल मूर्खतापूर्ण या हास्यास्पद है तो मैं उसमें कोई हस्तक्षेप  नहीं करूँगा. 

प्रतिक्रिया में केवल एक नक़ली हँसी मिलने से मुझे याद आ जाना चाहिए था कि आज तक मैं केवल वे संघर्ष ही जीत सका हूँ जो मेरी पत्नी ने मुझे जीत लेने दिए. लेकिन पुरुष ऐसे सबक़ आसानी से नहीं सीखते.

जब सभी लोग एक नया शोकेस ख़रीदने पर मेरी पसंद की तारीफ़ों के पुल बाँधने लगे तो मेरी समझ में आया कि मैं कितनी बड़ी मूर्खता कर बैठा हूँ. अब इतनी प्रशंसा हो जाने पर मैं उस भद्दी वस्तु को फेंक तो नहीं सकता था. इससे तो काठ का उल्लू बने रहना ही बेहतर था.

पाँचवें दशक में मैंने वही रणनीति अपनाई है जो मैं अपना सकता था. घुटने टेक देना. निर्णय लेने में वह मुझे थोड़ी सी ढील देती है, और मैं उसके हर निर्णय का ज़ोरशोर से समर्थन करता हूँ. 

अब तो फ़रीदा आंटी से केवल गूगल मैप्स आंटी ही बहस करती है. वह भी इसलिए कि वह अभी छोटी है, जानती नहीं किससे पंगा ले रही है.

Latest Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

0FansLike
2,116FollowersFollow
7,700SubscribersSubscribe

Latest Articles