चित्रकार अंजलि सोवनी द्वारा प्रथम विश्व युद्ध के अज्ञात भारतीय शूरवीरों का सम्मान और उनकी शौर्य कथाओं का वर्णन
“भगवान के लिए, यहाँ मत आना, मत आना, मत आना…..”
यह उन 10 लाख भारतीय सिपाहियों की गाथा है जिन्होंने महायुद्ध में भाग लिया और जिनमें से 74,000 शहीद हुए. उन कालो पानी पार करनेवालों की कहानी है जो यह सोचते थे कि “मैं तो विलायत जा रहा हूँ, अपने सपनों के मनमोहक इंग्लैंड में, जहाँ साहब लोग रहते हैं, लोग कोट-पतलून पहनते हैं, और बड़े मज़े की ज़िंदगी जीते हैं.”
शुरुआत
28 जून 1914 को ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य के उत्तराधिकारी आर्चड्यूक फर्डिनन्ड की हत्या हो गई. दो महीनों बाद ब्रिटेन ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया. लेकिन इस युद्ध के प्रभाव यूरोप के तट से बहुत दूर तक पड़नेवाले थे, विश्वभर के अनेक सैनिक और राष्ट्र इसकी चपेट में आनेवाले थे –- यह लड़ाई साम्राज्यों की लड़ाई थी.
साम्राज्य को सैनिक चाहिएँ!
भारत के वाइसरॉय, लॉर्ड हार्डिंग ने ऐलान कर दिया कि भारत भी इस युद्ध में शामिल है. उस समय के
किसी भी भारतीय राजनेता से परामर्श किए बिना ही उन्होंने यह घोषणा कर दी थी. भारत के राजनीतिक दल यह सोचकर सहमत हो गए कि आगे चलकर युद्ध समाप्त होने पर उन्हें भारत की आज़ादी के लिए इससे लाभ होगा.
युद्ध की तैयारियाँ शुरू होते ही धन एकत्रित करने के साथ साथ सेना में भर्ती की प्रक्रिया भी शुरू हो गई, जो “लड़ाकू जातियों” के सिद्धान्त पर आधारित थी: ब्रिटिश द्वारा किया गया वह वर्गीकरण जिसके अनुसार कुछ लोग अन्य लोगों की तुलना में अच्छे डील-डौल वाले और स्वाभाविक रूप से लड़ने में सक्षम होते हैं. अधिकतर सिपाही पंजाब, उत्तरपूर्वी सीमांचाल और हिमालय के पहाड़ी क्षेत्रों से चुने गए.
इन जगहों के लगभग 40% नवयुवक सेना में भर्ती हो गए.
भर्ती के आरंभिक दिनों में गर्व की भावना को बढ़ाने पर अधिक बल दिया गया
युद्ध के शुरुआती दौर में, प्रचार के पोस्टरों और मेले लगाने के माध्यम से नवयुवकों को सेना में भर्ती होने के लिए उत्साहित किया गया.
भर्ती करने के गीत ऊँचे स्वर में गरजते –-
“यहाँ तुम्हें मिलते हैं जूते, वहाँ मिलेंगे बूट
भर्ती हो जाओ!
यहाँ पहनते हो फटे-पुराने, वहाँ मिलेंगे सूट
भर्ती हो जाओ!
यहाँ रोटी-पानी का झगड़ा, वहाँ मिलेंगे सैल्यूट
भर्ती हो जाओ!”
भर्ती के आरंभिक दिनों में गर्व और अभिमान की बातें होती थीं, लेकिन 1917 के आने तक एक ‘कोटा सिस्टम’ बन गया जिसके अनुसार हर प्रदेश को सैनिकों की एक नियत संख्या देना आवश्यक हो गया. कई बार बल का प्रयोग भी हुआ, और इससे कुछ इलाकों में दंगे भी भड़के.
पंजाब में बहुत बार महिलाएँ अपने पुरुषों के पीछे-पीछे जातीं और उनसे भर्ती न होने का आग्रह करतीं. वे भर्ती करनेवालों पर पत्थर भी फेंकतीं, और अपने गानों से अपना रोष प्रकट करतीं.
“युद्ध उजाड़ता गाँव-शहर, और युद्ध उजाड़ता सबके घर
आँसू बहाते बैठी हूँ मैं, आकर मुझसे बात तो कर
न कोई पंछी, न मुस्कानें, डूबी हैं नौकाएँ सारी
मुँह खोलकर क़ब्र कर रही, सबको निगलने की तैयारी”
अनुमान है कि युद्ध के अंत तक भारत ने, जिसे “साम्राज्य का मुकुटमणि” कहा जाता था, दस लाख से अधिक योद्धा और युद्धेतर सैनिक, 1,70,000 पशु, तथा 121.5 मिलियन पाउंड (आज के 8.5 बिलियन पाउंड के बराबर) युद्ध के लिए उपलब्ध कराए.
कालो पानी के पार
26 सितंबर 1914 की सुबह जब मार्सेईज़ शहर पर सूरज उग रहा था, लाहोर विभाग के भारतीय सैनिकों से लदे हुए पहले जहाज़ बन्दरगाह में दाखिल हुए. जहाज़ों के लंगर डालने पर यात्रा से थके-हारे और मतली से परेशान सैनिक जहाज़ के डेक पर आ गए और झूमने लगे.
‘मार्सेल्स!’
‘हम मार्सेल्स पहुँच गए!’
‘शाबाश, शाबाश!’
सिपाही डेक पर ख़ुशी से धूम मचाने लगे.
महराज-सम्राट ने भी उनके लिए एक संदेश भेजा था…सिंहासन के प्रति उनकी निष्ठा पर उन्हें बधाई देते हुए बताया कि कैसे उन सबकी युद्ध में सबसे आगे रहने की एक-स्वर में उभरी माँग ने उनके हृदय को छू लिया था.”
एक रूसी चित्रकार, मास्सिया बिबिकॉफ, सिपाहियों के आगमन का चित्र बनाने के लिए उस समय मार्सेईज़ में उपस्थित थीं. उनके शब्दों में – “उनमें से कोई ऐसा न होगा जो पाँच फुट ग्यारह इंच से कम ऊँचा हो, सभी छरहरे, सुघड़ शरीर वाले…. बड़ा ही उन्मादक दृश्य था. जो लोग कैफ़े में चाय-कॉफी पी रहे थे सब खड़े होकर नारे लगाने लगे, “इंग्लिस्तान ज़िंदाबाद! हिंदुस्तान ज़िंदाबद! मित्र राष्ट्र ज़िंदाबद!”
प्रथम विश्वयुद्ध के एक जाने-माने इतिहासकार शांतनु दस के अनुसार, “साम्राज्य के अख़बारवालों ने किसी अन्य सेना का इतना पीछा नहीं किया होगा”.
युद्ध के मैदान में
खंदकों में हो रही लड़ाई की बर्बरता ने गर्व की सभी कल्पनाओं को जल्द ही चूरचूर कर दिया, जिसका मर्मस्पर्शी चित्र एक सिपाही के घर भेजे हुए इस पत्र से स्पष्ट है:
“भगवान के लिए, यहाँ मत आना, मत आना, मत आना यूरोप कि इस लड़ाई में. रात-दिन तोपें, मशीन गनें, राइफलें चलती हैं, बम फटते हैं, जैसे सावन में बरसात होती है. बच निकलने वाले लोग उतने ही हैं जितने हाँडी में पकने से बच जाने वाले दाने.”
इस महायुद्ध में भारतीय उपमहाद्वीप के 74,000 सैनिक मारे गए और हज़ारों अन्य शारीरिक अथवा मानसिक रूप से आहत हुए. लेकिन इस अंधकार से अदम्य साहस की अनेक कहानियाँ उभरकर आईं.
वर्ष 2019 में इस महायुद्ध की समाप्ति के 100 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में मैंने जहाँगीर गैलरी में एक प्रदर्शनी लगाई जिसका शीर्षक था, “पदक और गोलियाँ”. यह प्रदर्शनी उन ग्यारह भारतीयों पर केन्द्रित थी जिन्हें इस महायुद्ध में विक्टोरिया क्रॉस पदक से सम्मानित किया गया था, तथा इसमें छायाचित्र, फिल्में और अनगिनत ऐसे पत्रों के उद्धरण थे जो सिपाहियों ने अपने घर युद्ध का वास्तविक हाल लिखकर भेजे थे.
आगे आप देखेंगे मेरे द्वारा बनाए गए इनमें से चार विक्टोरिया क्रॉस विजेताओं के चित्र, और इनके विषय में लेख जो अखबारों में उस समय लिखे गए.
दफ़ादार गोबिंद सिंह. चित्र: अंजलि सोवनी
लंडन गज़ेट 11 जनवरी 1918
गोबिंद सिंह, लांस-दफ़ादार….को विशिष्ट शौर्य और कर्तव्यनिष्ठा के लिए विक्टोरिया क्रॉस प्रदान किया गया. उन्होंने रेजीमेंट से ब्रिगेड हेडक्वार्टर तक तीन बार संदेशे ले जाने के लिए डेढ़ मील के एक खुले मैदान को पार किया था, जिसपर शत्रु की पूरी नज़र थी और भारी गोलाबारी हो रही थी. वे तीनों बार संदेशा लाने में सफल रहे, हालाँकि तीनों बार उनके घोड़े को गोली लगी और उन्हें बाक़ी रास्ता पैदल तय करना पड़ा. पदक से विभूषित किए जाने के समारोह में दफ़ादार गोबिंद सिंह बकिंघम पैलेस में स्वयं उपस्थित थे.
नायक दरवान सिंग नेगी. चित्र: अंजलि सोवनी
‘भारत का गजेट: सेना विभाग, दिल्ली, 15 जनवरी 1915, भारतीय सेना’ से एक उद्धरण
“महाराज-सम्राट अपार आनंद और अनुग्रह के साथ सैन्य-सेवाकाल में विशिष्ट शौर्य प्रदर्शन के लिए फ़र्स्ट बटैलियन, 39 गढ़वाल राइफल्स के क्र. 1909 नायक दरवान सिंग नेगी को विक्टोरिया क्रॉस पदक के लिए अनुमोदित करते हैं. उन्होंने 23-24 नवंबर की रात को फेस्टूबेर्ट, फ्रांस में अदम्य साहस का प्रदर्शन किया जब उनका रेजीमेंट खंदकों में से शत्रु को खदेड़ कर अपना स्थान फिर से प्राप्त करने में जुटा था. दो बार सिर पर और भुजा में चोट लगने तथा शत्रु की बेहद नज़दीक से गोलीबारी झेलने के बावजूद, आगे बढ़ने का यह प्रयास करने वाले वे सबसे पहले सिपाही थे.”
इंद्र लाल रॉय. चित्र: अंजलि सोवनी
2 दिसंबर 1898 – 22 जुलाई 1918
इंद्र लाल रॉय प्रथम विश्व युद्ध के एकमात्र भारतीय वायु-सैनिक थे. जिस ज़माने में ब्रिटिश लोग भारतियों को अपना देश चलाने में असमर्थ समझते थे, रॉय ने रंग और जाति की सारी बाधाओं से जूझकर रॉयल फ्लाइंग कोर में, जो विशिष्ट से विशिष्टतम वायुसेना दल था, एक अधिकारी और योद्धा वैमानिक बनकर दिखाया.
6 जुलाई और 19 जुलाई 1918 के तेरह दिनों में रॉय ने दस बार हवाई हमलों में जीत हासिल की. केवल 170 घंटों की उड़ानों में उन्होंने 5 हवाई जहाज़ मार गिराए, और 5 को ‘अनियंत्रित होकर गिरने’ पर मजबूर किया. 22 जुलाई 1918 को फ़्रांस के ऊपर पश्चिमी मोर्चे में उनका विमान मार गिराया गया, और फ़्रांस में मौजूद जर्मन सेना ने पूरे सैनिक सम्मान के साथ उनकी अंतिम क्रिया की.
रॉय को मरणोपरांत ‘विशिष्ट फ्लाइंग क्रॉस’ से विभूषित किया गया – यह सम्मान पाने वाले वे पहले भारतीय हैं. 21 सितंबर 1918 के लंडन गज़ेट में छपे प्रशस्ति-पत्र में उनकी इन शब्दों मे सराहना की गई, “रॉय एक अत्यंत शूरवीर और दृढ़निश्चय अधिकारी थे, जिन्होंने अपने अनोखे कौशल और साहस के बल पर एक बार दो शत्रु विमानों को एक ही उड़ान में मार गिराया.”
राइफलमैन करणबहादुर राणा – “एक शांतचित्त राइफल”
लंडन गज़ेट 21 जून 1918
“कारणबहादुर राणा, क्र. 4146, राइफलमैन, 2/3 बटालियन. रानी एलेक्सांड्रा के निजी गुर्खा राइफल्स. उत्कृष्ट शौर्य प्रदर्शन, विपरीत परिस्थितियों में कुशल क्रियाशीलता, और ख़तरों से निश्चिंत. एक आक्रमण के दौरान वे चंद सैनिकों को साथ लेकर भीषण गोलीबारी के समय, एक ल्यूइस बंदूक लेकर शत्रु की एक ऐसी मशीन गन का सामना करने के लिए आगे बढ़े जिसने उन कई अफ़सरों और अन्य सिपाहियों को हताहत कर दिया था जिन्होंने उस मशीन गन को नष्ट करने के प्रयास किए थे. ल्यूइस गन के नंबर 1 ने गोली चलाई, और उसे शत्रु ने मार दिया. राइफलमैन करणबहादुर ने बिना पलक झपकाए मृत सिपाही को गन से परे कर दिया और अपने पर बम फेंके जाने और दोनों ओर से गोलीबारी किए जाने के बावजूद, गोली चलाकर शत्रु की मशीन गन चलाने वालों को मार गिराया; फिर अपने सामने के बम फेंकने वालों और राइफलमैनों पर गोली चलाकर उन्हें चुप करा दिया. उन्होंने अपनी बंदूक का चलना निरंतर जारी रखा, और बड़े धीरज और शांतचित्त से उसमें आए बिगाड़ को ठीक कर लिया जिससे वह दो बार बंद पड़ गई थी.”
नायक करणबहादुर राणा को महाराज-सम्राट ने स्वयं अपने हाथों से विक्टोरिया क्रॉस से विभूषित किया.
एक विस्मृत इतिहास का स्मरण
1919 में राष्ट्रवादी नेता और कवियत्री सरोजिनी नायडू ने लिखा था:
“मस्तक निष्प्रभ है शूर परंतु
भग्न-भंजित हाथ
बिखरी पड़ी हों कलियाँ जैसे नियति के रौंदे पश्चात
फ़्लैन्डर्स और फ़्रांस के रक्त-रंजित मैदानों की है बात”
इस युद्ध का “सभी युद्धों को समाप्त करनेवाला युद्ध” होना अपेक्षित था. इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ था कि विश्व के विभिन्न कोनों में बसे देश एक दूसरे से लड़ रहे थे, उसी पुराने कारण से जिससे मतभेद उत्पन्न होते हैं: सत्ता. इस युद्ध में चार करोड़ व्यक्ति हताहत हुए, और एक करोड़ साठ लाख पशु मारे गए. प्रथम विश्व युद्ध के बाद विश्व भर में असंख्य लोगों के एक जगह से दूसरी जगह जाने के कारण विश्व की पहली महामारी, स्पैनिश फ्लू भी आयी, जिसमें पाँच करोड़ लोगों की जानें गईं, जिनमें से एक करोड़ बीस लाख भारतीय थे.
भारत ने सोचा था कि इस युद्ध में शामिल होने से उसे कुछ लाभ मिलेगा, पर ऐसा नहीं हुआ.
1922 में रवींद्रनाथ टैगोर ने हताश होकर लिखा था:
“पाश्चात्य हमारे पास वह कल्पना और सहानुभूति लेकर नहीं आता जिससे कोई रचना हो, एकत्र आना संभव हो, बल्कि वह हमारे पास उत्साह का आघात लेकर आता है – शक्ति और वैभव के प्रति उत्साह – यह उत्साह तो एक आवेश मात्र है, जिसमें अलगाव और संघर्ष का सिद्धान्त निहित है.”