Saturday, February 1, 2025
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शिवाजी की दो प्रतिमाओं की कथा

कोल्हापुर के छत्रपति शाहू महाराज ने शिवाजी के स्मरण में, पुणे में शिवाजी मेमोरियल हॉल बनाने का प्रस्ताव दिया।

जनवरी 1818 के  कोरेगाँव(पुणे के ठीक बाहर) युद्ध में पेशवाओं के, अंग्रेजों से हारने के पश्चात, मराठा साम्राज्य के अंत का संकेत मिलने लगा। अंग्रेजों ने कोल्हापुर(शाहू), बड़ौदा(गायकवाड़), इंदौर(होल्कर) और ग्वालियर(सिंधिया) के महाराजाओं के साथ संधि की। उस समय शिवाजी महाराज का कोई भी स्मारक मौजूद नहीं था, कोल्हापुर के छत्रपति शाहू महाराज ने यह विचार प्रस्ताव रखा कि शिवाजी के स्मरण में एक स्मारक बनाया जाए, जिसमें घोड़े पर बैठे शिवाजी की प्रतिमा और एक विशाल कक्ष हो जो महान मराठा राजा को सम्मान प्रदान करने का एक तरीका था। इस प्रयास में सभी मराठा सरदारों ने वित्तीय योगदान दिया, जिसमें देवास और धार(पवार) जैसे छोटे राज्य भी सम्मिलित थे।

शिवाजी मेमोरियल हॉल में कोल्हापुर के छत्रपति शाहू महाराज का चित्र (श्रोत- AISSMS)

  वेल्स के राजकुमार ने आधारशिला की नींव डाली

छत्रपति शाहू महाराज भी अंग्रेजों का समर्थन चाहते थे। उन्होंने भारत के तत्कालीन राज्यपाल से,  इस महत्वाकांक्षी परियोजना के लिए वेल्स के राजकुमार को आधारशिला की नींव रखने के लिये आमंत्रित करने को कहा। अंग्रेज औपनिवेशिक शासकों को इस भारतीय राष्ट्रीय गतिविधियों का समर्थन स्वीकार करना पड़ा, क्योंकि वे मूल निवासियों की दृष्टि में स्वयं को एक प्रगतिशील शासकों के रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे, जो भारतीय राष्ट्रीय गतिविधियों का समर्थन करने वाला था।19 नवंबर, 1921 को वेल्स के राजकुमार, पूना (पुणे) पहुँचे और फिर उन्हें ग्वालियर और कोल्हापुर के सिपाहियों ने परेड करते हुए,जिसमें  हाथी,ऊंट और घोड़े शामिल थे, आधारशिला की नींव रखने के लिए भांबुरडा (अब शिवाजी नगर) के स्मारक स्थल तक उनका अनुरक्षण किया। वेल्स के राजकुमार ने भारतीय राष्ट्रीयवाद को प्रसन्न करने के प्रयास में कहा कि शिवाजी एक महान भारतीय सिपाही और शासक थे और उन्होंने ना केवल मराठा साम्राज्य की नींव रखी बल्कि एक राष्ट्र का निर्माण भी किया।

शाहू महाराज के नेतृत्व वाली समिति ने, परियोजना का आरंभ दो मूर्तिकारों को भर्ती करने के साथ किया। प्रतिमा के लिए  गणपतराव म्हात्रे और पट्टियों के लिए नानासाहेब करमारकर को नियुक्त किया गया। शाहू महाराज का सपना पूरा होने से पहले, उनका निधन मई 1922 में हो गया। ग्वालियर के महाराजा एलिजा बहादुर माधव राव सिंधिया ने इस प्रयास को जारी रखा, अपने निधन के समय तक, उनकी मृत्यु जून 1925 को हो गई। कोल्हापुर के महाराज राजाराम, जो शाहू महाराज के पुत्र थे, इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को 16 जून 1928 ( तीन सालों में) तक पूरा करने का वीडा़ उठाया, क्योंकि उस दिन शिवाजी का 300वाँ वर्षगांठ था।

मूर्तिकार और उनका दृष्टिकोण

रावसाहब गणपतराव म्हात्रे  एक जाने माने  शिल्पकार थे, जिन्होंने पूरे भारत में कई परियोजनाओं पर काम किया था। उनके ग्राहकों की बात करें तो मैसूर, बड़ौदा, कोल्हापुर के महाराज और कई धनी पारसी व्यवसायी शामिल थे। उनकी गढ़ी हुई, पर्शियन शायर फिरदौसी की मूर्ति, तेहरान विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार की शोभा बढ़ाती है, जिसे मुंबई में रहने वाले पारसियों ने बनवाया था। 1896 में, जब वो जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स में शिक्षक थे, तो उन्हें विक्टोरिया पदक- सर्वोत्कृष्ट मूर्तिकार के लिए और मेयो  पदक- सर्वोत्कृष्ट चित्रकारी के लिए प्राप्त हुआ। एक युवा छात्र के रूप में, उन्होंने एक युवा महाराष्ट्रियन लड़की की जीवनाकार मूर्ति गढ़ी, जो नौ गज की पारम्परिक साड़ी पहने पूजा करने जा रही थी। मूर्ति का निर्माण उन्होंने प्लास्टर आफ़ पेरिस से किया, जिसका शीर्षक था “मंदिर पथ गामिनी (To The Temple)”। यह अद्भुत कलाकृति, सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स के प्रवेश द्वार की शोभा बढ़ाती है।

नानासाहेब करमारकर, औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार में कार्यरत OTTO ROTHFELD  की खोज थे। ROTHFELD ने, युवा करमारकर के कार्य कुशलता को उनके गृहनगर ससावणे (अलीबाग के पास) में देखा था। उन्होंने करमारकर को, बॉम्बे के सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स में प्रवेश दिलाया। नानासाहेब करमारकर, गणपतराव के छात्र थे, जो विश्वविद्यालय में विजिटिंग फैकल्टी के रूप में कार्यरत थे। करमारकर ने शीर्ष स्थान के साथ स्नातक किया। वो मुंबई और कलकत्ता में काम करने लगे। मुंबई और कलकत्ता में उन्होंने प्रसिद्ध हस्तियों और भारतीय देवी देवताओं की मूर्तियां गढ़ी। उन्हें शिवाजी की मूर्ति के पट्टियों को बनाने के लिए, शिवाजी मेमोरियल हॉल कमिटी ने बुलाया। म्हात्रे  का दृष्टिकोण था कि वो रेत साँचा तकनीक का प्रयोग करके कांसा धातु की मूर्ति बनाये। यह तकनीक बहुत ज्यादा समय लेने वाली थी लेकिन इससे मूर्ति को एक अच्छा आकार मिलता। जबकि, करमारकर का दृष्टिकोण यह था कि वो मूर्ति को एक ही टुकड़े के सांचे में ढाले, जो एक जोखिम भरा कार्य था, परंतु इससे समय की काफी बचत होती। अलीबाग के पास ससावणे में उनकी कला उनके घर( संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया) में प्रदर्शनी में लगाई गई है।

एक प्रतियोगिता और दौड़ पूरी करना

कोल्हापुर के महाराज, राजाराम ने नानासाहेब करमारकर को कई अन्य परियोजनाओं पर काम करने के लिए दिया था और वो करमारकर से काफी प्रभावित थे, क्योंकि नानासाहेब करमारकर ने शिवाजी स्मारक परियोजना में मूर्ति की पट्टियों का निर्माण तय समय से तीन महीने पहले ही पूरा कर लिया था। म्हात्रे की धीमी प्रगति से महाराज राजाराम निराश हो गए और उन्होंने करमारकर को एक और मूर्ति बनाने का प्रस्ताव रखा। अब दोनों मूर्तिकारों को परियोजना को समाप्त करने के लिए निश्चित अंतिम तिथि दी गई।

 बॉम्बे  मझगाँव बन्दरगाह से मूर्तियों को बाहर भेजने तक

उस समय भारत में कोई ऐसा ढलाई घर नहीं था,  जो 13.5  फीट ऊंची मूर्ति, जिसका वजन लगभग 15/20 टन हो, का निर्माण कर सके। करमारकर, मझगाँव बन्दरगाह ढलाई घर पहुंचे, जिसकी क्षमता थी कि वो इतने ऊँचे मूर्ति को सांचे में ढाल सकता था। वहां अंग्रेज़ पर्यवेक्षक RASMUSSEN, यह कहकर बचता हुआ नजर आया कि ऐसी परियोजना पर उसने काम नहीं किया है, लेकिन इस प्रतिमा को बनाने के लिए सर्वश्रेष्ठ प्रयास करेगा। इस आश्वासन के साथ करमारकर ने रेत का साँचा बनवाया जिसे मझगाँव बन्दरगाह द्वारा उपयोग किया गया। अंततः, मूर्ति 1 जून,  1998  की रात को, मजदूरों के एक दल, जिसमें अधिकांश मजदूर चीनी थे, के द्वारा साँचे में ढाली गई। मजदूरों ने पिघले हुए कांसा को साँचे में डाला और एक टुकड़े में मूर्ति का निर्माण किया।

पूना मूर्ति, नानासाहेब द्वारा ( श्रोत- AISSMS)

मूर्ति के किनारों की पट्टी, नानासाहेब करमारकर के द्वारा गढ़ी गई(श्रोत- AISSMS )

किनारे की पट्टियां- बाएँ से दायें और शीर्ष से तल

शीर्ष

वाणी-डीनडौड़ी का युद्ध- शिवाजी महाराज और मुगल साम्राज्य के दाऊद खान के बीच, वाणी-डीनडौड़ी के पास (नाशिक के निकट)

वाराणसी के गागा भट्ट द्वारा छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक समारोह

तल

‘कल्याण खजीना’, स्तंभ के अंत भाग में, मुल्ला अहमद (कल्याण का मुगल सूबेदार) के ऊपर की चढ़ाई की कहानी को दर्शाता है, जिसकी बहू खजाने के साथ पकड़ी गई। उसे युद्ध का बंदी बनाने के बजाय,  शिवाजी महाराज ने उसे उसके घर बीजापुर सुरक्षित भेजने का प्रस्ताव रखा।

देवी भवानी की संगमरमर की मूर्ति, स्तंभ के सामने वाले हिस्से में, शिवाजी को माता भवानी का आशीर्वाद लेते दर्शाता है।

वाडाला से भांबुरडा ( अब शिवाजी नगर) की यात्रा

(श्रोत- AISSMS)

अपने अनुबंध के अनुसार, करमारकर का यह भी कार्य था कि वो प्रतिमा को मझगाँव बन्दरगाह से भांबुरडा (अब शिवाजी नगर), उस स्थल पर ले कर आए, जहां प्रतिमा स्थापित करनी थी। बहुत सारे विकल्प निकाले गए,  जिसमें एक विकल्प यह था कि प्रतिमा को समुद्र के रास्ते, रत्नागिरी होते हुए पुणे भेजे। दूसरा विकल्प यह था कि कोल्हापुर सड़क मार्ग से प्रतिमा को पुणे भेजे ताकि घुमावदार घाटों से बचा जा सके। समुद्र के रास्ते भेजना सम्भव था, परंतु तय किए गए कठिन समय सीमा पर नहीं पहुंच पाता। पैकिंग के साथ प्रतिमा का आयाम 15 फीट तक पहुंच गया। GIP( ग्रेट इंडियन पेनीनसुला)  रेल्वे अभियंताओं के तकनीकी सहायता से इस समस्या का समाधान किया गया। सबसे छोटी सुरंग में से 9.5 फीट से ऊंची प्रतिमा पार नहीं सकती थी। GIP अभियंताओं ने यह निर्णय लिया की प्रतिमा को बिना पैकिंग के ट्रेन में एक ऐसे कोण से रखा जाए कि वो सबसे छोटे सुरंग को भी पार कर सके।

जून 1928 को शिवाजी प्रतिमा का औपचारिक अनावरण

16 June, 1928 को बॉम्बे के तत्कालीन राज्यपाल, सर लेस्ली विल्सन ने प्रतिमा का अनावरण किया। इस घटना को ब्रिटिश पैथ यू-ट्यूब वीडियो पर देखा जा सकता है, जिसमें हाथियों, ऊंटों और घोड़ों की शाही परेड शामिल थी।

परिशिष्ट भाग

बड़ौदा प्रतिमा, रावबहादुर गणपतराव म्हात्रे  और पुत्र शाम राव द्वारा (श्रोत- डॉ हेमंत संत)

जब नानासाहेब करमारकर ने ये प्रतियोगिता जीत ली, तो रावबहादुर गणपतराव म्हात्रे गंभीर वित्तीय समस्याओं में फंस गए। सौभाग्य से, बड़ौदा के महाराज सयाजी राव तृतीय उनके बचाव में सामने आए और उन्होंने दूसरी मूर्ति को खरीद लिया और बड़ौदा शहर के केंद्र में इस मूर्ति को स्थापित कर दिया। शिवाजी स्मारक कक्ष का निर्माण 1933 में पूरा हुआ जिसका उद्घाटन 20 सितंबर,1933 को बॉम्बे के तत्कालीन राज्यपाल सर फ्रेडरिक साइकस के द्वारा किया गया। यह, श्री शिवाजी प्रिपरेटरी मिलिट्री स्कूल की मुख्य भवन के रूप में कार्यरत है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बहुत सारे स्नातक छात्रों को, भारतीय सेना में सीधे दाखिले का प्रस्ताव रखा गया, ताकि वो ब्रिटिश युद्ध में सहायक बन सकें।

अरुण मंत्री, श्री शिवाजी सैन्य प्रारंभिक विद्यालय के पूर्व छात्र और बाग़नी/ इस्लामपुर के नारोराम शेनवी- रेगे उर्फ़ नारोराम मंत्री के वंशज है जो कोल्हापुर के छत्रपति शाहू महाराज के मंत्रिमंडल में एक सरदार मंत्री थे। नारोराम मंत्री ने कवलेम, गोवा में प्रसिद्ध शांता दुर्गा मंदिर का भी निर्माण किया। कहानी विभिन्न श्रोतों से संकलित है।

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